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सिषकर्म-सिद्धि अभिलषित गुणो को प्राप्त करता है, विगेपकर उसकी अग्नि प्रदीप्त होती है। वह प्रमेह, कृमि, कुष्ठ, अर्श तथा मेदोदोप ने रहित होता है ।
गुग्गुलु रसायन-लौह भस्म १ पल, गुग्गुलु ३ पल, त्रिकटु ५ पल, त्रिफला ८ पल । मिश्रित मात्रा १ तोला । अनुपान दूध। (भा प्र.)
शिलाजतु रसायन-प्रीष्म ऋतु मे सूर्य से तप्त हिमालय पर्वत मे पत्थरो मे लाख के सदृश एक वस्तु का क्षरण होता है ! जो सगृहीत होकर शिलाजीत के पन्यरो के रूप मे पाया जाता है । सुवर्ण, रजत, ताम्र, लौह प्रभृति ६ घातुओ के अनुसार इसके भी प्रकार होते है। इनमे लौह शिलाजतु सर्वश्रेष्ठ है । रम में मभी शिलाजीत तिक्त, कटु, विपाक में भी कटु और छेदक गुण वाला होता है । वीर्य मे नात्युष्ण होता है।
उत्तम शिलाजीत के लक्षण-जो शिलाजीत गोमूत्र की गंधवाला, गग्गुलु के समान, कंकड एवं शर्करा रहित, चिकना, स्निग्ध, अनम्ल (अम्ल न हो), मृदु और गुरु होता है, वह श्रेष्ठ है ।
शिलाजीत शोधन-पहले पानी में धोकर सुखावे । फिर त्रिफला क्वाथादि में उवाले मोर भावना दे। बाजार में गद्ध शिलाजीत नाम से शुद्ध किया ही गिलाजीत मिलता है। उसी का व्यवहार करना चाहिये।
सेवन विधि-प्रथम रोगी का स्नेहन आवश्यक है। तिक्त द्रव्यो से साधित वृत का तोन दिनो तक सेवन कराके रोगी को स्निग्ध कर लेना चाहिये पश्चात् शुद्ध शिलाजीत को तीन-तीन दिनो तक निम्न वस्तुओ में से एक-एक के साथ वरते । त्रिफला के क्वाय से तीन दिन, पटोल के क्वाथ से तीन दिन और मध्यष्टी के क्वाथ से तीन दिन । इस प्रकार एक, तीन या सात सप्ताह तक प्रयोग करावे । कुल मात्रा २ तोले, ४ तोले या ८ तोले की होनी चाहिये । इनको क्रमश हीन, मध्यम, उत्तम मात्रा कहते है। यह शिलाजीत की विशिष्ट सेवन विधि है।
सामान्य विधि-मामान्यतया १ मागा की मात्रा में प्रातः सायं दूध में घोल कर लेने की विधि रोगो की चिकित्सा में चलती है। मधुमेह, अश्मरी और गरा नादि रोगो में उस विधि से प्रयोग करते हुए १ तुला (५ सेर ) तक अधिकतम फुल मात्रा वतलाई गई है जिसका उल्लेख प्रमेह चिकित्साधिकार मे हो चुका है।
गालमागटि गा में कहे हुए द्रव्यो के क्वाथ के साथ शिलाजीत को अच्छी प्रकार भावित करके शुष्क चूर्ण बना लेना चाहिये। फिर यथासंभव पचकर्म द्वारा