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भिपकर्म - सिद्धि
प्रथम खण्ड: निदानपंचक
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प्रथम अध्याय
निदान पंचक प्रयोजन
'निदानपचक' का विपय वडा ही गहन है । इसके भीतर जिज्ञासु जितना प्रविष्ट होता है, उतना ही उलझता जाता है । कई नामो से इस विपय की वैद्य - परम्परा मे प्रसिद्धि है, जैसे- 'निदानपचक', 'पचनिदान', 'पचलक्षण' 'पचलक्षणी' आदि । माधवनिदान के पाठ मे यह वेद्यपरम्पराओ मे एक कठिन स्थल माना जाता है । इसकी कठिनता का अनुमान निम्नलिखित कहानी से लगाया जा सकता है ।
पुराने जमाने मे वैद्यक के विद्यालय नही होते थे । अधिकाश छात्र गुरुओ के घर पर ही रहकर विद्याभ्यास किया करते थे । ढाका के कविराज का एक प्रसिद्ध गुरुपीठ था । बहुत से छात्र वहाँ विद्याभ्यास करते और विद्यासमाप्ति के अनन्तर देश के विभिन्न स्थानो मे जाकर अपनी वृत्ति या चिकित्माव्यवसाय किया करते थे । एक वार गुरु जी अपनी वृद्धावस्था मे तीर्थ-यात्रा को निकले । कलकत्ते मे काली-दर्शन करते जाते समय उनकी दृष्टि एक वडे 'साइन बोर्ड' पर पडी जिसमे उनका नाम अकित था । उन्होने अनुमान लगाया कि यहाँ अपना कोई शिष्य कविराज होगा । दर्शन करके जब लौटे तो उम कविराज के स्थान पर गये । गुरुजी ने शिष्य को नही पहचाना, परन्तु शिष्य ने उन्हे तत्काल पहचान लिया । उनका वडा आदर किया, सत्कारपूर्वक अपने आसन पर बैठाया और उस दिन की सम्पूर्ण आय गुरु की सेवा मे अर्पित की। गुरुजी के अनेक शिष्य थे तुमको पहचाना नही, तुम रहे ।' शिष्य ने उत्तर दिया
उन्होने इस शिष्य से पूछा 'भाई मैने कब और कितनी अवधि तक मेरी पाठशाला मे कि गुरुजी मने कुल पाँच ही दिनो तक आप के