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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय दोपाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः।
ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेपां पुनरुद्भवः॥ जहाँ पर रसायन और वाजीकरण औपधियो के द्वारा शरीर का नवी-करण सभव रहता है वहां पर भी शोधन की आवश्यकता रहती है । जैसे मैले कपडे के रँगने से रग नही चढता किन्तु साफ कपडा शीघ्रता से रग ग्रहण कर लेता है। इसी तरह अविशुद्ध शरीर मे औपवियो का गुण भी प्रकट नही होता, उसके लिए शुद्ध शरीर की अपेक्षा होती है।
अविशुद्धे शरीरे हि युक्तो रासायनो विधिः। ।
वाजीकरो वा मलिने वस्त्रे रङ्ग इवाफल.॥ इन पचकर्मों का उपयोग केवल चिकित्सा के क्षेत्र तक ही सीमित नही है । रोगो के निवारण ( Profilaxis ) मे भी इसका मूल्य कम नही हैं । विभिन्न ऋतुओ मे होने वाली व्याधियो के प्रतिकार मे भी इस शोधन कर्म का मूल्य अक्षुण्ण है । हेमन्त ऋतु के दोषसचय को वसन्त के प्रारम्भ से शोधन के द्वारा निकाल देने से वसन्त ऋतु मे होने वाली श्लेष्मपत्तिक व्याधियाँ जैसी ( Small-Pox Pneumnonia. Bronchitis etc ) facu À नही होती । ग्रीष्म ऋतु के सचित हुए दोपो को वर्षों के आरम्भ मे पचकर्मो के शोधन द्वारा निकाल देने पर वातिक रोग जैसे ( Gout Goity Arthritis Rheumatism etc. ) जो प्राय वर्षा ऋतु मे देखे जाते है, भविष्य मे प्राय नही होते। इसी प्रकार वर्षा ऋतु के सचित दोपो को जो भविष्य मे शरद् ऋतु मे पैत्तिक रोगो को जैसे ( Malaria Hyper pyreyio etc ) पैदा करते है। वर्षा के बाद शरद् ऋतु प्रारभ मे शोधन के द्वारा निकाल दिए जाने पर समाज को उस रोग से मुक्त किया जा सकता है । 'हैमन्तिक दोपचय वसन्ते प्रवाहयन प्रैष्मिकमभ्रकाले । घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक् प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु ।' चरक शास्त्र इतना ही नही कई बार धातुओ के दूपित होने पर सशमन औपधियो के विधिवत् उपयोग के भी वावजूद रोग नही पिण्ड छोडता। वहाँ पर एकमात्र शोधन कर्म ही उपचार रूप मे शेप रहता है । ___उपर्युक्त विचार को समक्ष रखते हुए शोधन कर्म की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। चिकित्सा की दृष्टि से ( Curative ) अथवा अनागतवाधाप्रतिपेध ( Profilaxis) की दृष्टि से दोनो तरह से इसकी उपादेयता स्वत सिद्ध है। सशोवन से पचकर्म के ही ५ विविध अगो का ग्रहण काय