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________________ ३० भिपकर्म-सिद्धि निदान का निर्दुष्ट लक्षण–'हेतुः निदानम्' यदि ऐमा लक्षण किया जाय तो यह ठीक नहीं क्योकि हेतु कई प्रकार के होते है जैसा कि ऊपर उत्पादक और व्यजक अथवा कुछ ऐसे भी कारण हो सकते है जिन्हे अन्यथासिद्ध कारण कहते है-जैसे कि घट के निर्माण मे गदहा और उसके ऊपर लादी जानेवाली मिट्टी, वस्ता आदि । फलत लक्षण की अतिव्याप्ति हो जावेगी और ऐसे भी कारणो का इस लक्षण मे समावेश हो जावेगा जिनका रोगोत्पादन मे कोई भी भाग नही है । अस्तु, ऐसा लक्षण करना दोपयुक्त होगा। अव दूसरा लक्षण वनावे 'व्याधयुत्पत्तिहेतुनिदानम्' या 'रोगोत्पादकहेतुनिदानम्' अर्थात् रोगोत्पादक हेतु को निदान कहते है। तो विजयरक्षित जी कहते हैं कि यह भी ठीक नहीं है क्योकि इस लक्षण की सम्प्राप्ति के लक्षणो मे अतिव्याप्ति हो जावेगी, क्योकि कुछ विद्वान प्रकुपित दोपो के व्यापार को सम्प्राप्ति मानते है-- 'प्रकुपितदोपाणा व्यापारत्वं रोगोत्पत्तित्वं सम्प्राप्तित्वं वा ।' ऐसी अवस्था मे रोगोत्पादक हेतुत्व और प्रकुपित दोपो के व्यापार मे कोई अन्तर नही रह जावेगा । अस्तु, सम्प्राप्ति के लक्षणो से बचाने के लिये कुछ और विशेषण जोडने की आवश्यकता है। सम्प्राप्ति मे अतिव्याप्ति वचाने के लिये लक्षण किया गया- 'सेतिकर्त्तव्यता को रोगोत्पादकहेतु निदानम् ।' अर्थात् 'दोपप्रकोपणपूर्वक रोगोत्पादकत्व निदानत्वम्' । इसका सरल अर्थ होता है दोष एव दुष्ट दोषजन्य विकृति के सहित रोगोत्पादक हेतु का नाम ही निदान है। सेतिकर्तव्यताकः-कर्त्तव्यस्य इति प्रकारः इतिकर्तव्यं, तस्य भाव इतिकर्त्तव्यता, तया सहित सेतिकर्तव्यताक , व्यापारवैविध्य युक्तो हेतुनिदानम् । एव मति रुक्षादीना भावाना वातादिप्रकोपण दूष्याणाञ्चामाशयादीना दूपणादिरूपा च इतिकर्तव्यता । वातादीनाञ्च चय-प्रकोप-प्रसर-स्थानसंश्रयदूष्यादिदूपणरूपा. तस्माद् रूक्षादीना वातादीनाञ्च निदानत्वम् । ___ तात्पर्य यह है कि निदान अकुपित दोपो को कुपित करता है, फिर दोष, दूष्य आमाशयादि को दूपित कर रोग को उत्पन्न करता है यही इति कर्त्तव्यता या व्यापार है--इस व्यापार के साथ जो रोगोत्पादक हेतु है उसको निदान
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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