________________
द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय
१२३
है । तीक्ष्ण, मध्य और मृदु । रोगी तथा रोग के तीन प्रकार के उत्तम, मध्यम, हीनादि का विचार करते हुए यथाक्रम इन योगो का इस्तेमाल करना चाहिए ।*
तीक्ष्ण ( Drastic)-स्निग्ध और स्विन्त (स्वेदन किए ) व्यक्तियो मे सूखपूर्वक वेग के साथ शीघ्रता से जो वेगो को निकाले, साथ ही गुदा और हृदय मे वेदना न पैदा करे तथा अन्त्रो मे किसी प्रकार की हानि न पैदा करे तो उसे तीक्ष्ण वीर्य का विरेचन कहते है । इनसे कुछ हीन गुण का विरेचन मध्यम (Mild ) कहलाता है। इसके द्वारा विशोधन न बहुत तेज और न बहुत हल्का, मध्यम दर्जे का होता है । यदि औपधि का वीर्य मन्द हो (Low Potency) असमान वीर्य औपधियो के सयोग से बनी हो, कम मात्रा मे दी गई हो अथवा रोगी का स्नेहन-स्वेदन भी न हो सका हो तो वह मृदु प्रकार ( Laxative) का गोधन होता है । इनके द्वारा मद वेग का शोवन होता है।
चमन विधि (Method of induction of Emesis )
तीष्ण अग्नि वाले, बलवान, बहुत दोप युक्त, महान रोग से पीडित तथा वमन जिसे सात्म्य हो, इस प्रकार के रोगी को लेना चाहिए। उसका स्नेहन तथा स्वेदन करावे। इन क्रियाओ से दोपो के शिथिल हो जाने पर उसे कफवर्धक अभिष्यदी भोजन दे । जैसे ग्राम्य, औदक तथा आनूप मासरस या दूध । इससे रोगी का कफ बढ़ जाता है। उसे उत्क्लेश होने लगता है। जिससे वामक औपधियो के पीने से वमन सुखपूर्वक होने लगता है।।
दूसरे दिन प्रात काल ( पूर्वाह्न) मे साधारण काल मे जव न अधिक ठण्डा हो न गर्म हो, रोगी के कोष्ठ विचार करते हुए, जो ठीक हो उस मात्रा मे वामक द्रव्य का प्रयोग कपाय, कल्क, चूर्ण अथवा स्नेह के किसी एक रूप मे * बलविध्यमालक्ष्य दोपाणामातुरस्य च ।
पुन प्रदद्याद् भैपज्य सर्वशो वा विवर्जयेत् । तीक्ष्णो मध्यो मृदुर्व्याधि सर्वमध्याल्पलक्षण । तीक्ष्णादीनि बलावेक्षो भेषजान्येपु योजयेत् ॥ सुख क्षिप्र महावेगमसक्त यत् प्रवर्तते। नातिग्लानिकर पायो हृदये न च रुक्करम् । अन्तराशयमक्षिण्वन् कृत्स्न दोप निरस्यति । विरेचन निरूहो वा तत्तीक्ष्णमिति निदिशेत् ।। किंचिदेभिर्गणीन पूर्वोक्तमत्रिया तथा । स्निग्धस्विन्नस्य वा सम्यमव्य भवति भेषजम् । मन्दवीयं विरुक्षस्य हीनमात्र तु भेपजम् । अतुल्यवीय सयुक्त मृदु स्यान्मन्दवेगवत् ॥ (च क १२)