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भिपकर्म-सिद्धि मिलाकर रोग का ज्ञान किया जाता है। जिस रोग मे केवल निदान की उपलब्धि होती है अन्यो की नही, वहाँ पर केवल निदान ही व्याधि का बोधक होता है । इसी प्रकार उपलब्धि के कही पूर्वरूप, कही रूप, कही उपाय और कही सम्प्राप्ति से एकैकग व्याधि का वोधक होता है। कई बार दो, कहीं तीन, चार या पांचो की सहायता से भी व्याधि का ज्ञान किया जाता है।
कतिपय विद्वानो का कथन है कि यदि एक उपाय से ही व्याधि का ज्ञान सभव हो तो दूसरे उपायो मे भी उसी का जान करने मे पिटपेपण मात्र होगा फलन कृतकरणन्व दोप ( किये हुए का पुन करना) की सभावना रहती है। परन्तु वात एमी नहीं है क्योकि एक प्रमाण से किसी वस्तु का ज्ञान होने पर भी वह जान भ्रमात्मक हो सकता है, निश्चयात्मक नही । अस्तु, निश्चयात्मक ज्ञान के लिये एक प्रमाणसिद्ध पदार्य का दूसरे प्रमाणो की सहायता से (प्रमाण-समूह से ) निश्चयात्मक ज्ञान होता है। और इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान कभी मिथ्या नही हो सकता-अत आचार्यों ने व्याधि के निश्चयात्मक जान प्राप्त कराने के लिये ही 'पचनिदान' के साधनो ( पच प्रमाण समूहो) का उपदेश किया है।
न्याय या तर्कशास्त्र में किसी सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिये 'पचावयव वाक्य' को महत्ता बतलाई गई है। चरक मे भी इस विषय का प्रतिपादन पाया जाता है। प्रतिना, हेतु, दृष्टान्त, उपनय, निगमन इन पाँच साधनो से किसी सिद्धान्त या निश्चित मत का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे स्थापना करनी है कि 'पुरुप नित्य है' यह प्रतिना हुई, इसमे हेतु दिया गया 'अकृतकत्वात्' ( कारण वह स्वय अकृत है ), अव दृष्टान्त देना होगा 'यथा माकाशम्', उपनय में यह कहना होगा 'यथा अकृत आकाग है वह नित्य है उसी प्रकार परप भी।' अत में निगमन या फल निकला कि 'मत पुरुप नित्य है।' इसी के विपरीत मत की स्थापना की जा सकती है, उसे प्रतिष्ठापना कहते हैं। लोक मे भी देखा जाता है कि धुआँ से अनुमानित अग्नि का निश्चयात्मक जान प्रत्यक्ष, अनुमान तया आप्तोपदेश की सहायता से ही सभव होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अनुमान मे प्रतीत अग्नि का ज्ञान प्रत्यक्ष द्रष्टा माप्तवाक्य ने किया जाता है, उसी प्रकार निदानादि पाँचो साधनो में मे पिनी एक के द्वाग व्याधि का मामान्य ज्ञान होने के अनन्तर भी रोग का निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करने के लिये निदानादि पाँचो साधनो की अपेक्षा रहती है। वस्तुत तक्मम्मत रोगविनिश्चय की यही गास्त्रीय विधि (Class1cal method) है।