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द्वितीय अध्याय ३ साल्यार्थो हपशयः।
(चरक नि १) ४. सुखानुवन्धो यो हेतुाधि विपरीतकः । देशादिकञ्चोपशयो योनुपशयोध्यादिन्यथा ॥
(सुदान्त सेन ) ५ तस्मात् 'सम्यक् व्याविजदुःखोपशमहेतुरपशया' 'सात्म्यमुपशयः' 'औषधज नितः सुखानुवन्ध उपशय.' वा इति ।
(विजयरक्षित) ६ विपर्यस्तोर्थः विपर्यस्तार्थः विपर्यस्तार्थ-कत्त शीलं येपां ते
विपर्यस्तार्थकारिणः विपर्यस्ताश्च विपर्यस्तार्थकारिणश्च विपर्यस्त विपर्यस्तार्थकारिणः। हेतुश्च व्याधिश्चहेतुव्याधी। हेतुव्याधिभ्यां
विपर्यस्त विपर्यस्तार्थकारिण तेपामुपयोगः सुखावहः । उपगय का निर्दुष्ट लक्षण
'औषधजनितः सुखानुबन्धः उपशयःसक्षेप मे औपव, अन्न, विहार, देश तथा काल आदि से उत्पन्न सुखपरम्परा को उपगय कहते है। परिणाम मे सुखकारक वस्तुओ को ही सुखावह कहा जाता है। तुष्णा एव दाहयुक्त नव-ज्वर के रोगी मे शीतल जल का प्रयोग तत्काल सुखावह प्रतीत होते हुए भी परिणाम मे सुखावह नही होता क्योकि उससे ज्वर का वेग तेज हो जाता है और अन्य उपद्रवो के होने की माशंका रहती है-अस्तु परिणाम मे सम्बकारक न होने से उसको उपशय नही कहेंगे। 'तद्यदने विपमिव परिणामेऽमृतोपमम्' अस्तु, तत्काल मे अप्रिय होने पर भी परिणाम मे अर्थात आगे चलकर जो अमृतवत् सुखकर हो वास्तविक सुखावह उसी को कहते है, उपशय भी यही है। कभी-कभी अपथ्य सेवन से क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है । जैसे-दधि का सेवन अम्ल
सम, परन्तु सुखकर अनुवन्ध या परम्परा स्थायी नहीं रहती। परिभाषा म अनुवन्ध पद देने का तात्पर्य यह होता है कि जो परिणाम मे सुखदायी हो अपथ्य-सेवन परिणाम मे सुखदायी नही होता है । अस्तु वह उपशय की श्रेणी मे नही आ सकते।
वास्तव मे 'विकारो दु खमेव च' दुख या कष्ट ही रोग है उसकी निवृत्ति हा सुख है। लोक मे भी कहा जाता है 'भारापगमे सुखिन सवृत्ता स्म'