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भिपकर्म-सिद्धि बोपधि-योगो मे जलोदरारि रस का प्रयोग उत्तम रहता है, नुवह-शाम दो-दो रत्ती की मात्रा में पुनर्नवास्वरस : माना और मधु ६ मागे के साथ । हच योग के लिये रमसिन्दूर १ नी, हृदयार्णव २ रत्ती, प्रवालपिष्टि २ रत्ती, जहरमहरा २ रत्ती, वर्जुन चूर्ण ४ माना मिला कर दो मात्रा मे वाट कर दिन में दो बार देना चाहिए ! गेगी को गत ने मोते वक्त आरोग्यवर्धिनी ४ रत्ती-८रत्ती तक एक मात्रा दूध के माथ देना चाहिए। यदि पंगे पर गोय एक रस्ताल्पता हो तो नवायन बनवा नवा मडूर का नित्रण नी यथावक किया जा सकता है । इस व्यवस्था से रोगी का रेन एव वातानुलोमन होता चलता है। इस व्यवस्था के बावजूद भी नेगी वाचन व ना 3 दश्यक रहता है । एतदर्थ एक एक दिन के अन्तर से प्रात काल में इन्चामंदी म २-४ रत्ती नाराब स १-२ रत्ती, जलापा चूर्ण २-४ मागा व्या नमठेचन ( मंगमाफ) एवं सोडा सत्फ १ ओस के जल या चीनी के गत में साथ देने की यावश्यक्ता पडती है ! इन क्रिया ने तीन रेचन होकर रोगी के उदर का मायाम घटता है ।
इन औपवि योगो के तिरिक्त भी वहत से उन औषधियों का प्रयोग किया जा सकता है जिनका ऊपर मे नामोल्लेख हो चुका है। जैसे-अष्टमूत्र या गोमूत्र का १ स्टाक की मात्रा में प्रात काल में उपयोग, हरीतको चूर्ण ६ माशा की मात्रा मे गोमूत्र के अनुपान में ।
जलोदर प्रतिपेध में सर्पविप का प्रयोग-आचार्य चरक ने लिखा है कि जब सम्पूर्ण प्रकार को चिकित्सा करने पर कोई लाभ न हो, न दोपो का ही गमन हो पावे और न उलोदर का हो, तो अतिम उपचार के रूप में इस भयंकर एव खतरनाक उपचार का भी प्रयोग म्यिा जा सकता है। यह एक दारुण कम १. क्रियातिवृत्ते जठरे विवोपे चाप्रगान्यति । जातीन नमुहृदो दारान् ब्राह्मणान्नृपतीन् गुरुन् । अनुमाप्य भिपक कर्म विध्वात् नशय वन् । बम्निाय व मृत्यु निवारा मंगयो ब्रुवन् । एबमान्याय न मनुजात नुहृद्गण. । पानभोजनमबन्न विमस्मै प्रयोजयेत् ॥ यस्मिन् दापित नो दिनृद्धि पले विपम् । भोजयेत्तदुरिण प्रवित्राय मिपावरः ।। तेनात्य दोपगंधान रियो लीनो विमार्गग. । विपेणाशु प्रमाथित्व दागु भिन्न प्रवर्तते ।।