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चतुथे खण्ड : छत्तीस नॉ अध्याय
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चलती है, परन्तु, यह क्रिया अल्पकालीन आराम के लिये होती है । इस का रोगी नीरोग नही हो पाता है । यदि चरक या सुश्रुत मत से उसको एक वर्ष तक कडे पथ्य ( Ristricted diet ) पर रखा जाय तो लाभ स्थायी होता है । "
Rao ओपधि प्रयोग से जलोदर प्रतिषेध-गवहार मे यह देखा गया है कि विसावण (Tapping ) के अनन्तर आये रोगियो की चिकित्सा मे यश नही मिलता । सभवत उन में पथ्य की ठीक व्यवस्था न होने से या सहसा जल के निकलने से हृदय दुर्बल हो जाता है, फलन चिकित्साकाल मे उनकी मृत्यु हो जाती है । अरतु, चिकित्सा मे ऐसे रोगियो का लेना जिन मे जल विस्रावण की क्रिया न की गई हो, उत्तम रहता है ।
जलोदर के रोगी को निर्जल, निर्लवण एव निरन्न रख कर केवल दूध का पथ्य देते हुए उपचार प्रारंभ करना चाहिए और यह क्रम तब तक रखना चाहिये जब तक कि उदर प्राकृतावस्था मे न आ जावे । पश्चात् ससर्जन करते हुए क्रमश मण्ड, पेया, विलेपी आदि देते हुए दूध और रोटी पर रोगी को ले आना चाहिये । पुन रखना चाहिये अन्यथा जलोदर के अच्छे हो सेवन से पुनरुद्भव की आशंका रहती है ।
भात अथवा दूध एवं इस आहार पर उसको एक वर्ष तक जाने के पश्चात् भी उस मे अपथ्य
चिकित्सोपक्रम -- रोगी को स्वेदल, मूत्रल एव रेचक औषधियो का प्रयोग करते हुए उदरगत जल के निकालने का प्रयत्न करना चाहिये । साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि रोगी का हृदय कमजोर न होने पावे, एतदर्थ हृद्य योगो का सेवन भी कराते रहना चाहिये। रोगी को जल का परित्याग चिकित्सा - काल मे करना चाहिये । क्षुधा एव तृषा दोनो के शमन के लिये गर्म कर के ठडा किया दूध ( शृतशीततीर ) ही पथ्य होता है, परन्तु यदि ऋतु अनुकूल न हो, अथवा रोगी की तृपा ( प्यास ) बहुत तीव्र हो तो जल के स्थान पर किसी अर्क का उपयोग पीने के लिये किया जा सकता है । अर्को मे काकमाची, पुनर्नवा, शतपुष्पा (सोफ) या अजवायन का अर्क दिया जा सकता है- नारिकेलजल ( डाभ का पानी) भी उत्तम रहता है ।
१ परमासाश्च पयसा भोजयेज्जाङ्गलरसेन वा । ततस्त्रीन्मासानर्दोदकेन पयसा फलाम्लेन जाङ्गलरसेन वा । अवशिष्ट मासत्रयमन्न लघु हित वा सेवेत । एव सवत्सरेणागदो भवति ॥ ( सुचि १४ )
२ सर्वोदय कुशलै प्रयोज्य क्षोर मृत जाङ्गलजो रसो वा । (सु ) प्रयोगाणा च सर्वेषामनुक्षीरं प्रयोजयेत् । दोषानुबन्धरक्षार्थं वलस्थंयर्थमेव च ॥ प्रयोगापचिताङ्गाना हित चोदरिणापय । सर्वधातुक्षयादोना देवानाममृत यथा ॥ (च )