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भिपकर्म-सिद्धि
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१ अभिघातज ज्वर - चोट लगजाने, गिर जाने या किसी अभिघात से उत्पन्न ज्वरो में घृत और तैल का अभ्यंग तथा मासरस और तण्डुलोदन देना चाहिये । यदि कोई व्रण हो गया हो तो व्रणवत् उपचार करना चाहिये ।
२ अभिचार या अभिशापज ज्वर - ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, सिद्ध और पतिव्रता स्त्री का अपमान करना, अभिचार और उनके शाप से उत्पन्न ज्वर अभिगापज कहलाते है । इस अवस्था में देव व्यपाश्रय चिकित्मा का आश्रय लेने से ज्वर ठीक होता है । अस्तु, होम, प्रायश्चित्त, स्वस्त्ययन तथा अन्य मागलिक कर्म द्वारा उपचार करना चाहिये । उत्पात तथा ग्रह पीडा जन्य व्यावियो मे भी यही उपक्रम लाभप्रद सिद्ध होता है ।
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३ क्रोधज - स्वर - क्रोध ने उत्पन्न ज्वरो की शान्ति के लिये पित्त शामक क्रियाये करनी चाहिये । रोगी के इच्छित पदार्थों की पूर्ति करना, आश्वासन देना तथा अच्छे एव अनुकूल वचनो से रोगी की तसल्ली करना, उपचारों मे
समाविष्ट है ।
४ काम-शोक-भय ज्वर- -इन कारणो से उत्पन्न ज्वरो मे वातशामक ओपधियों के प्रयोग तथा मन को हर्पित करने वाली क्रियाओ का प्रयोग करना चाहिये | अभिमत पदार्थ या इष्ट पदार्थ की प्राप्ति से क्रोध ज्वर नष्ट होता है । और क्रोधजनक कारणो से कामवासनाजन्य ज्वरो का शमन होता है । काम और क्रोध इन दोनो भावो से भय और शोक जन्य ज्वर शान्त होता है । पवि के रूप में पित्तशामक भेपज जैसे सुगंधवाला, कमल, श्वेतचंदन, खस, दालचीनी, धनिया, जटामासी का क्वाथ काम ज्वर में लाभप्रद होता है ।
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५ भूतज ब्वर -भूत विद्या का विषय है । तदनुसार वधन, ताडन, नावेश प्रभृति कर्मों द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है |
६ मानस ज्वर-मानस ज्वर में ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, वृति और समाधि ( चित्त की एकग्रता ) द्वारा उपचार करना चाहिये । विधिपूर्वक सहदेवो मूल को कठ में बाँधकर रखने से तीन या चार दिनो में भूत-प्रेत प्रभृति कारणो से उत्पन्न ज्वर शान्त होते है |
शापाभिचाराद् भूतानामभिपङ्गाच्च यो ज्वरः । दैवव्यपाश्रयं
सर्व सौपधनिष्यते ॥
तत्र
( चरक चि ३ )
विषमज्वरोपचार
क्रियाक्रमः – १ विषमज्वर प्राय. त्रिदोषज हुआ करते हैं अस्तु इन ज्वरो में दोपकीउल्वणता ( विशेपता या अविकता ) का विचार करते हुए तदनुकूल