________________
सत्ताईसवाँ अध्याय
ऊरुस्तंभ-प्रतिषेध
प्रावेशिक - ऊरुस्तभ एक विरलता से पाया जाने वाला रोग है । संभवतः प्राचीन युग में बहुत मिलता रहा हो, आधुनिक युग में तो बहुत कम मिलता है । स्व० कविराज गणनाथ सेनजी सरस्वती ने लिखा है- " पुराणा विलय यान्ति नवीना प्रादुरासते ।" अर्थात् कुछ रोग पुराने जमाने मे मिलते थे आज वे दृष्टिगोचर नही होते, इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे नवीन रोग भी होने लगे है, जो पुराने जमाने मे नही मिलते थे ।
शीत, उष्ण, द्रव, शुष्क, गुरु तथा स्निग्ध द्रव्यो के सेवन करने से, अजीर्ण मे ही भोजन ( अध्यशन ) करने से, सम्पन्न व्यक्तियो में यह रोग होता है । इसमे अधिक मात्रा मे आम-मेद कफ से युक्त वायु पित्तको अभिभूत करके करु ( Thigh ) मे आकर दोनो सक्थियो को एव उनकी अस्थियो को स्तिमित या श्लेष्मायुक्त कर देते है जिससे वे जकड जाते है |
इससे दोनो ऊरु ( जांघो ) में जकडाहट, शीतता तथा अचेतनता आ जाती है। रोगी को अपने ऊरु पराये के समान भारी प्रतीत होते हैं वह उनको स्वतत्रतया हिलाने में असमर्थ हो जाता है । टांगो को उठा नही सकता तथा उनमें सुन्नता आ जाती है । उक्त लक्षणो से युक्त रोग को ऊरुस्तभ कहते है । कुछ लोग इसे आढयवात भी कहते है । यह एक ही प्रकार का होता है " एक एव ऊरुस्तभ " । "
क्रियाक्रम - स्नेहन, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म तथा रक्त-विस्रावण कोई भी शोधन कर्म ऊरुस्तभ मे नही करना चाहिये, क्योकि ये सभी कर्म रोग के विरोधी पडते है | अस्तु, स्वेदन, लघन, प्रभृति रूक्षण क्रिया जो आम और कफ को नष्ट करनेवाली हो, करनी चाहिये । यह भी ध्यान मे रखना चाहिये कि जो औषधि 'कफ एव आम का नाश करती हो, किन्तु वात का प्रकोप न करती हो, उसीका
१. सक्थ्यस्थीनि प्रपूर्यान्त श्लेष्मणा स्तिमितेन च । तदा स्तभ्नाति तेनोख स्तब्वौ शीतावचेतनौ ॥ परकीयाविव गुरू स्यातामतिभुशव्यथौ । ध्यानाङ्गमर्दस्तैमित्यतन्द्राच्छद्य रुचिज्वरं । सयुतौ पादसदनकृच्छ्रोद्ध रणसुप्तिभि । तमूरूस्तम्भमित्याहुराढ्यवातमथापरे ।। ( वा नि १५ )