________________
५००
भिपकर्म-सिद्धि
ऊरस्तंभ मे प्रयोग करना चाहिये । ऊरुस्तंभ मे प्रारंभ मे कफनागक आहार, विहार एवं भेपज देकर पश्चात् वातविनाशक सम्पूर्ण क्रिया करनी चाहिये ।
अरुस्तभ रोग अधिकतर मेदस्वी तथा सुकुमार व्यक्तियो में होता है-कफ को क्षीण-करने के लिए रोगी को कर सकने वाले व्यायामो को करने के लिए कहना चाहिये । प्रात काल में उठकर उसको विपम स्थान (ऊँची-नीची जमीन पर ), वाल, धूल और कंकडीले स्थानो पर टहलने का व्यायाम कराना उत्तम रहता है। जल-संतरण-जिस नदी के अंदर नक्रादि हिंसक जल-जन्तु न हो, धार तेज न हो, स्वच्छ जल बहता हो, उसके प्रवाह के विरुद्ध दिशा में ऊरुस्तभी को तैराना चाहिये । यदि नदी न हो तो किसी नहर या जलागय में रोगी को तैराना चाहिये । वार-बार तैरने से पानी में पैरो को चलाने से रोगी का कफ नष्ट होने से ऊरस्तंभ भी दूर होता है । यदि रोगी का अधिक रूक्षण हो जावें तो वायु के प्रकोप से निद्रानाश, वेदना की अधिकता प्रभृति उपद्रव होने लगते है-इस परिस्थिति मे रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके वायु को शान्त करना चाहिये।
ऊरुस्तंभ मे प्रलेप-लहसुन, जीरा, सहिजन की छाल, कालीमिर्च, सरसों, जयन्ती पत्र, काले धतूर की जड, अफीम के फल के छिल्के, करंज के फल, अश्वगव मूल, नीमकी छाल, अमूल । इन द्रव्यो को सम भाग में लेकर गोमूत्र में पीस कर गर्म करके लेप करना ।
तेल-अष्टकटवर तेल-पिप्पलीमल और सोठ दोनो का गर-चार तोला लेकर पानी में पीस कर कल्क बना ले। फिर सर्पप तेल ( सरसो का तेल ) ६४ तोले, दही ६४ तोले तथा माढी बाली दही (ससार दधि कट्वर कहलाती है) उस या प्रस्थ अर्थात् ६ सेर ३२ तोले, इसको मथकर तक बनाकर डाले । सब को कलईदार कडाही मे लेकर अग्नि पर चढाकर मंद आँच पर यथाविधि मिद कर ले । इमके तेल की मालिश से गध्रसी एवं ऊरुस्तभ में लाभ होता है ।
१ स्नेहामृक्नाववमन वस्तिकर्म च रेचनम् । वर्जयेदाढयवातेपु तैश्च तस्य विरोधत ॥ तस्मादव सदा कार्य स्वेदलंघनरूक्षणम् । आममेव कफाधिक्याद् मारुतं परिरक्षता ॥ यत्स्यात् कफप्रगमनं न च मारतकोपनम् । तत्सर्व सर्वदा कायमूरुस्तम्भम्य भेषजम् ।। सर्वपिधक्रम कार्यस्तत्रादी कफनागन । पश्चाद्वातविनाशाय कृल्ला कार्या क्रिया यथा ॥ (यो. र.) २ प्रतारयेत् प्रतिन्नोती नदी गीतजला गिवाम् ।
नरश्च विमल शीतं स्थिरतोय पुन पुन. ।।