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भिपकर्म-सिद्धि उदाहरणार्थ-१ काकजंघा, वला, च्यामा, ब्रह्मदण्डी (भार्गी), लज्जावती, पृश्निपर्णी, अपामार्ग तथा भृगराज । इन आठ औपधियो में से किसी एक को पुष्यनक्षत्र मे उखाडकर उसके मूल को लाल सूत्र से वेष्टित करके पुरुप के दाहिने हाथ अथवा स्त्री के वायें हाथ मे बाँध कर धारण करने से नित्य आने वाला विषम ध्वर दूर होता है । (भै र.)
२ उल्लू के दाहिने पाँख को कच्चे श्वेत डोरेमे वाँधकर रोगी के वायें कान मे बाँधने से भी यही फल होता है।
३ कर्कट ( केकडा) के विल की मिट्टी का माथे पर तिलक करने से भी यही फल होता है इसमें तर्क नहीं करना चाहिये और इनके प्रभावो को देखना चाहिये।
४. अपामार्ग को जड को लाल रंग के सात सूत्रो से लपेट कर रविवार के दिन कटि में बाँधने से ऐकाहिक ज्वर में लाभ देखा गया है।
५ सभी प्रकार के विषम ज्वर मे जयन्ती मूल को इसी प्रकार वाँध कर धारण करना भी लाभप्रद होता है। (भै. र )
६ मकोय की जडका कान में बाँधना भी रात्रि स्वर में लाभप्रद पाया गया है।
चातुर्थक ज्वर में विशेष क्रियाक्रम-चातुर्थक ज्वर एक वडा ही हठीला ज्वर होता है । वहुविध उपचारो के वावजूद भी शान्त नही होता है । इस मे रोगी मन से बहुत कमजोर हो गया रहता है। निश्चित समय पर उमको ज्वर का वेग अवश्य सता देता है । अस्तु कुछ विशिष्ट उपक्रमो का आश्रय लेना पडता है।
नस्य-१ गिरीप पुष्प के स्वरस में हरिद्रा, दाहरिद्रा इनका चूर्ण और घृत मिला कर खरल में सालोडित करके नस्य देने से लाम होता है । २. अगस्त्य पत्र स्वरस और हीग का नस्य भी ऐसा ही कार्य करता है। ३ अगस्त्यपत्र स्वरस मे हरिद्रा, दारु हरिद्रा तथा घी को मालोडित करके भी नस्य का विधान है। ४ केवल अगस्त्यपत्र स्वरस का नस्य भी लाभप्रद होता है।
मुख से प्रयोज्य औपधि--१ रोगी के वलावल के अनुसार शुद्ध मृत हरिताल भस्म 1 से ३ रत्ती की मात्रा में दिन में तीन बार श्वेत वत्स और देत वर्ण की गाय के दूध के साथ रविवार को देने से ज्वर नष्ट होता है ।
२ महाज्वराङ्कश-शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध वछनाग १ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग, शुद्ध धतूरे का वीज ३ भाग, काली मिर्च ४ भाग, सोठ ४ भाग, छोटी पीपल ४ भाग । प्रथम पारद एव गंधक की कज्जली करे पश्चात् अन्य औपधियो