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________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५१३ या नावुन के पानी या लवण जल को वस्ति गुदा से देना), स्वेदन ( उदर तथा अन्य शूलयुक्त अङ्ग का स्वेदन ), पाचन तथा वायु का अनुलोमन करने के लिये क्षारो, चूर्णों और गोलियो का उपयोग करना उत्तम रहता है। इन सामान्य उपायो से शूल का शमन होता है। वास्तव मे जैसा पूर्व में बताया जा चुका है कि शूल रोग में सर्वत्र वायु की हो प्रधानता होती है । अस्तु, सामान्य वात-शामक उपचार ही प्रशस्त माने गये हैं।' . विशिष्ट क्रियाक्रम-वातिक शूल में विशिष्ट रूप से स्नेहन तथा स्वेदन (पायस या कृशरा से सेंक, पिण्ड या पोट्टलो बनाकर सेंक, स्निग्ध मास को पोट्टलो बनाकर सेंक ) विशिष्ट उपवार है। वायु का रोग आशुकारो होता है । अतः शीघ्रतापूर्वक उसका प्रतिकार करना चाहिए । शूलाभिपन्न व्यक्ति मै स्वेदन (Fomentation) करना सद्य सुख पहुँचाता है। तिलकल्कादि स्वेद-कांजी के साथ कालो तिल को पीसकर कडाही मे गर्म करके एक कपडे के टुकडे मे पोटलो बनाकर गर्म-गर्म उदर के ऊपर बार-बार सेंकना शूल का शमन करता है । गमे जल का सेक-एक बोतल मे गर्म जल भर कर या रवर के थैला में गर्म जल भर कर सेकना ( Hot water Bottle ) गर्म जल में तारपोन का तेल छोडकर उसमें तौलिया भिगोकर निचोड कर उदर का सेंकना ( Terpentine stoup) भी उसी प्रकार लाभप्रद रहता है। १ वमनं लघनं स्वेदः पाचनं फलवर्त्तय । क्षारश्चूर्ण च गुटिका शस्यते शूलशान्तये ।। २. ज्ञात्वा तु वातज शूल स्नेहै स्वेदैरुपाचरेत् । पायस कृशरापिडे. स्निग्धैर्वा पिशितोत्करैः ॥ आशुकारी हि पवनस्तस्मात्तं त्वरया जयेत् । तस्य शूलाभिपन्नस्य स्वेद एव सुखावह ॥ नाभिलेपाज्जयेच्छूल मदन काजिकान्वितम् । बिल्वरण्डतिलापि पिष्टैरम्लेन पोट्टली ॥ राजिकाशिग्रुकल्कं वा गोतक्रेण च पेपितम् । तेन लेपेन हन्त्याशु शूल वातसमुद्भवम् ।। हिंगु तैल सलवण गोमूत्रेण विपाचितम् । नाभिस्थाने प्रदातव्यं यस्य शूल सवेदनम् ॥ (यो र ) ३३ भि० सि०
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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