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सिषकर्म-सिद्धि आमाशय या कुक्षि ही प्रधान अधिष्ठान होता है। इन शूलो के अतिरिक्त दो प्रकार के विशेप शूलो का वर्णन इस अधिकार मे और पाया जाता है जिनका त्रिदोपज शूल के भीतर ही समावेश समझना चाहिये। इनमे पित्तोल्वणता होती है । इन दो प्रकार के शूलो मे से एक परिणाम शूल दूसरा अन्नद्रव शूल कहलाता है । इन दोनो का आधुनिक युग के ( Peptic ulcer ) के वर्णनो के साथ पूर्ण साम्य है । परिणाम शूल ( Duodenal ulcer ) का तथा अन्न द्रव शूल ( Gestric ulcer ) के रूप मे स्पष्टतया प्रतीत होता है । भोजन के परिपाक काल मे या भोजन के पच जाने पर ( भोजन के दो-तीन घटे वाद ) होने वाले उदर शूल को परिणाम शूल और बिना किसी नियम के होने वाले शूल को जो भोजन करने के साथ ही या भोजन के पच जाने पर या रिक्त आमाशय पर या भरे आमाशय पर कभी भी हो जाता है और वमन हो जाने पर शान्ति मिलती है, अन्नद्रव शूल कहते है ।' ___आधुनिक ग्रंथो मे शूल ( Colics) पांच प्रकार के बतलाये जाते है-- वृक्क शूल (Renal Colics), पित्ताशय शूल (Biliarycolic), गर्भाशय शूल (uterine Colics), आत्रपृच्छ शूल ( Appendiulear Colics) तथा आत्र शूल ( Intestinal Colics), तथा प्राचीन ग्रथकारो ने इन शूलो के अतिरिक्त कुछ अन्य शूलो का भी इसी अध्याय मे समावेश कर रखा है। जैसे-हच्छूल (Angina Pectoris), वक्षस्तोद (Pleurodyna ) तथा परिणाम एव अन्नद्रव शूल ( Peptic ulers)। इनमे पित्त शूल, वृक्क शूल, हृच्छूल, परिणाम शूल एवं अन्न द्रव शूल इन रोगो में पंत्तिक शूलवत् उपचार करने का विधान तथा अन्य शलो मे कफ एव वात जन्य शूलोपचार करने का विधान बतलाया गया गया है ।
सामान्य क्रियाक्रम-शूल के रोगी मे प्राथमिक उपचार के रूप में सर्वप्रथम लंघन (खाना बद करके उपवास), वमन ( ऊपर से दोपो को निकालने के लिये ), फलत्ति ( अघो भाग से दोपो के निर्हरण के लिये सपोजिटरी १ भुक्ते जीर्यति यच्छूलं तदेव परिणामजम् । जीर्णे जीर्यत्यजीर्णे वा यच्छलमुपजायते ।। पथ्यापथ्यप्रयोगेण भोजनाभोजनेन च । न शमं याति नियमात्सोऽन्नद्रव उदाहृत ॥ अन्नद्रवात्यगूलेपु न तावत्स्वास्थ्यमश्नुते । वान्तमाने जरपित्तं ,मूल चाशु व्यपोहति ॥ (मा. नि )