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विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्व प्रकार के ज्ञानव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके अथवा जिसका अनुसरण करते हुए दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति हो सके उस तन्त्र को आयुर्वेद कहते है। ___आयुर्वेद में आयु के स्वरूप के अतिरिक्त आयु के सम्बन्ध में चार दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है। --मुरवायु (स्वस्यायु), तथा दुग्गा (अस्वस्थायु)२-हितायु तथा अहितायु । ३-आयु के हितकर (लाभप्रद) तथा अहितकर (हानिप्रद) द्रव्य-गुण एवं कर्म । ४-आयु का प्रमाण । दृसरे गब्दों में आयु के स्वस्थ्य क्रिया शरीर ( Physiological Phenonicna ) तथा विकृत्त क्रिया-शारीर ( Pathological Phenomena ) दीर्घ आयुधवी प्राप्ति के निमित्त जीवन के हितकर तथा हानिप्रद पथ्यापथ्य का निदेग ( Usefull and harmful medication, Hygeine & Sanitation. environments, Ditetics etc ), साथ ही आयु का प्रमाण ( Longivity ) का यथा तथ्य कथन प्रभृति उपदेशों का संग्रह आयुर्वेद तन्त्रों का लक्ष्य है। उपर्युक्त दृष्टिकोणों से द्रव्य ( Substance ), गुण ( Properties ) तथा कनों (Actions ) की विवेचना सम्पूर्णतया इस शास्त्र का विवेच्य विषय है।
इस व्यापक अर्थ मे ( Science of life ) आयुर्वेद केवल मानवष्टि तक ही सीमित नहीं रहता है। उसमें चर और अवर उभय विधि जीवधारियों के सम्बन्ध में 'हिताहितं सुखं दुःखं आयुत्तस्य हिताहिनं, मानञ्च तच यत्रोक्तं आयुर्वेद स उच्यते ।' उनके हिताहित का ज्ञान, उनके स्वस्थ रखने के उपाय. उनके विकारों की दूरीकरण के उपाय तथा उनकी आयु-मयांदा के बतलाने के साधन प्रभृति यावतीय ज्ञातव्य बाते इस आयुर्वेद के द्वारा जानी जा सकती है । फलत. सम्पूर्ण जीव विद्या ( Boilogy ), पशु चिकित्सा ( Veterinary Treatment), अश्व काप्य (Diseases and treatment of Horses), पाल काप्य ( Diseases and treatment of Elephants) तथा वृक्षायुर्वेद ( Plant Pathology and treatment ) प्रभृति सभी विषयों का समावेश आयुर्वेद में हो जाता है।
व्याधयो हि समुत्पन्नाः सर्वप्राणिभयङ्कराः ।
तद् ब्रूहि मे शमोपायं यथावटमरप्रभो।। (च० सू० १) विशिष्ट स्वरूप-तथापि आयुर्वेद का व्यवहार, विशेषार्थ में मानवीय आयुर्वेद के लिये ही किया गया है। क्योंकि स्वर्गीय विद्या आयुर्वेद का आनयन इहलोक के संतप्त और आर्त्तजन मानवों के कल्याणार्थ ही ऋपियों ने किया था.
प्रादुर्भूतो मनुष्याणामन्तरायो महानयम् । कस्मात्तेपां शमोपाय इत्युक्त्वा ध्यानमास्थित.॥ - - -