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चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय
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तथा वित्तोल्वण कुष्ठ मे विरेचन तथा रक्त-विस्रावण कराना श्रेष्ठ रहता है । " रक्त-विस्रावण के सम्बन्ध में यह ध्यान में रखना चाहिये कि यदि कुष्ठ का प्रसार रक्त धातु मे न हुआ हो और त्वचा के ऊपर एक-दो स्थानो में सीमित हो तो उसका प्रच्छान करके शृङ्ग के द्वारा रक्त निकाले, परन्तु जव कुष्ठ का दोप सर्व-शरीर में व्याप्त हो तो उस अवस्था मे रोगी का सशोधन शिरावेध करके ( फस्त खोलकर ) करना चाहिये ।
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वमन कराने के लिये - वासा, अडूसा, परवल की जड, नोम तथा प्रियंगु को छाल, मैनफल का काढा 'वनाकर मधु मिलाकर वमन कराना तथा — विरेचन के लिये त्रिवृत् ( निशोथ ), दन्तीवीज ( जयपाल ) तथा त्रिफला का चूर्णं या काढा बनाकर दस्त कराना कुष्ठ रोगियो मे हितकर होता है ।
अंतःप्रयोज्य रक्त शोधक या कुष्ठशामक औषधियाँ -- कुष्ठ के रोगियो मे बहुत सी रक्तशोधक औषधियां व्यवहृत होती है जिनके द्वारा कुष्ठ के लक्षणो का सशमन होकर रोग दूर होता है । जैसे,
१ धात्री और खदिर का क्वाथ - खदिर की छाल १ तोला, आंवला १ तोला लेकर ३२ तोले जल में खौलाकर ८ तोले शेष रहने पर मधु मिलाकर पिलाना । २. धात्री ओर खदिर के बने क्वाथ मे बाकुची का चूर्ण १ माशा प्रक्षिप्त करके पीना । ३ भयङ्कर कुष्ठ से पीडित व्यक्ति भी यदि एक वर्ष तक बाकुची का चूर्ण २ माशे और काली तिल का चूर्ण ३ माणे मिलाकर एक मात्रा प्रात - सायम् सेवन करे तो कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाता है । २ ४ अथवा केवल वाकुचीका २ माशे से ३ माशे प्रतिदिन जल या दूध के साथ सेवन करे तो कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाता है |
इन योगो का उपयोग सभी प्रकार के कुष्ठ रोगो मे लाभप्रद होता है, परन्तु विशिष्ट रूप से विकुष्ठ (श्वेतदाग) में लाभदायक होता है । इन योगो के सेवन काल में श्वित्र 'कुष्ठ के रोगी मे गाय के दूध की व्यवस्था पर्याप्त मात्रा में करनी चाहिये - रोगी को आहार में रोटी ओर दूध या पुराना चावल और दूध ही पथ्य कर देना चाहिये । श्वित्र के अतिरिक्त दूसरे कुष्ठ रोगो में बार्कुची का प्रयोग करना हो तो घृत या गोघृत की पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिये क्योकि दूध अन्य
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कुष्ठेषु ।
श्रेष्ठम् ॥
१ वातोत्तरे सर्पिर्वमनं श्लेष्मोत्तरेषु पित्तोत्तरेषु मोक्षो रकस्य विरेचनं २ तीव्रण कुष्ठेन परीतदेहो य सोमराजी
नियमेन खादेत् ।
संवत्सरं कृष्णतिलद्वितीया स सोमराजी वपुपाऽतिशेते ॥ ४० भि० सि०