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भिपकर्म-सिद्धि कुष्टो में उतना उपयोगी नही रहता है । रोगी को गोघृत के साथ ही भोजन देना चाहिये। वाकुची को सोमराजी कहते है-सोमराजी का अर्थ होता है चंद्रमा की कान्ति, अर्थात् जो कुष्ठ से विरूप हुए व्यक्ति को चद्रमा की कान्ति जैसे कान्तिवान् वना दे। सोमराजी के प्रयोगो मे कई घृत और तैलो का भी पाठ मिलता है जैसे सोमराजी तैल तथा सोमराजी घृत इनका पाठ घृतो के प्रसंग में आगे दिया जावेगा । वाकुची वीज चूर्ण के अतः प्रयोग में मात्रा का ध्यान रखना चाहिये, ग्रन्थो में १ तोले तक की प्रतिदिन की मात्रा वतलाई गई है, परन्तु रोगी को.प्रारंभ मे १,२ माशा तक दे ।' जैसे-जैसे रोगी को सह्य होता चले वढावे । वृत के अनुपान से देना चाहिये-वाकुची के प्रयोग-काल मे रोगी के लिये पर्याप्त गोवृत की व्यवस्था कर लेनी चाहिये । वाकुचो का वाह्य प्रयोग श्वित्र कुष्ठ में भूरिशः हुआ है इसका वर्णन लेपो के प्रसंग मे आगे किया जावेगा । श्वित्र में वाकुची की एक और भी प्रयोगविधि है । . प्रथम दिन पाँच वीज वाकुची के ठंडे जल से निगलावे । प्रतिदिन १-१ दाना बढाता चले । इस प्रकार २१ तक वटाकर फिर १-१ दाना घटा कर पाँच पर लावे। इस प्रकार का वधमान वाकुची का प्रयोग जब तक रोग अच्छा न हो जावे कई वार करे । साथ में शुद्ध वाकुची का तेल उस मे बरावर तुवरक का तेल मिलाकर श्वित्र पर लगावे । इस प्रकार खाने एव लगाने के वाकुची के उपयोग से श्वित्र में उत्तम लाभ होता है ।
५. 'खदिरः कुष्टघ्नानाम्' कुष्ठघ्न औषधियो मे खदिर का उपयोग भी बहुलता से हुआ है-कुष्ठघ्न योगो मे खदिर बहुश. प्रयोग आया है। खदिर का स्वतंत्र प्रयोग करना हो तो खदिर की छाल का क्वाथ बनाकर देना चाहिये । अथवा कत्ये को २ माशा पानी में खोलाकर पीना चाहिये । श्वित्र कुष्ठ मे कत्थे का घोल उत्तम लाभ दिखलाता है। खदिर के योगो में खदिरारिष्ट का उपयोग उत्तम रहता है ---इसके योग का उल्लेख आगे किया जा रहा है ।
६. गुडूची-गुटूची का स्वरस २ तोले या यथावल मात्रा में नित्य लेकर सेवन करने से तथा आहार में मंग की दाल और पुराने चावल का भात खाने से कुष्ठ रोग से मुक्ति होती है । १ अवल्गुजावोजकपं पीत्वा कोष्णेन वारिणा ।
भोजन सपिपा कार्य - सर्वकुष्ठविनाशनम् ॥ २ छिन्नाया स्वरसो वापि सेव्यमानं यथावलम् । जीर्णे घृतेन भुञ्जीत मुद्गयूपीदनेन च । अपि पूतिशरीरोऽपि दिव्यरूपी , भवेन्नर ।