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________________ चतुर्थ खण्ड : इकतालीसवॉ अध्याय ६४६ रखना परमावश्यक है। अच्छा हो जाने पर भी अपथ्य होने से इसके पुनरुद्भव की संभावना रहती है । पुराने अम्लपित्त को याप्य व्याधि शास्त्रकारो ने बतलाई है । अस्तु, इस रोग मे पथ्यकर आहार-विहार की विशेष महत्ता दी गई है। आँवला-आंवले का उपयोग अम्लपित्त मे श्रेष्ठ है। आँवले के स्वरस ६ माशे से १ तोला का १ तोला मिश्री के साथ सेवन या आंवले का चूर्ण ६ माशा का मिश्री या मधु से सेवन उत्तम लाभ करता है। पिप्पली-पिप्पली चूर्ण १-२ माशा का मधु ६ माशे के साथ सेवन । कुष्माण्ड-स्वरस १ तोला दूध में मिलाकर लेना अथवा कुष्माण्ड स्वरस में गुड मिलाकर लेना। जम्बोरी नीवू-स्वरस १ तोला की मात्रा मे सायंकाल मे पीना। कागजी नीबू का रस भी पानी मे डालकर साय काल मे ३ बजे पीना लाभप्रद रहता है।' ___ हरीतकी चूर्ण या त्रिफला चूर्ण-३ माशे की मात्रा मे मधु से दिन में दो बार । त्रिफला सेवन का एक और भी विधान है। त्रिफला चूर्ण ६ माशे लेकर कान्त लौह पान पर लेप कर दे। रात भर व्युपित होने पर दूसरे दिन उसको निकालकर मधु के साथ सेवन करना । __ शृंगराज-भृगराज का चूर्ण ३ माशा, हरीतकी चूर्ण ३ माशा मिश्रित कर १ तोला पुराने गुड के साथ सेवन । आर्द्रक या शुण्ठी-सोठ ४ माशा, पटोलपत्र ८ माशे भर लेकर १६ तोले जल में खौलाकर ४ तोले शेष रख क्वाथ मे मधु मिलाकर सेवन । मधुयष्टी-चूर्ण ५ माशा मधु के साथ सेवन । त्रिवृत चूर्ण-६ माशा मधु से सेवन । जौ-जीमण्ड ( वार्ली वाटर) का सेवन अम्लपित्तघ्न होता है। यदि तुपरहित जौ, पिप्पली और पटोलपत्र का क्वाथ बनाकर मधु के साथ दिया जाय तो अधिक लाभ होता है। अंगूर या द्राक्षा--का मिश्री के साथ मिश्रित करके सेवन उत्तम रहता है। १. पिप्पली मधुसयुक्ता अम्लपित्तविनाशिनी । जम्बीरस्वरस पीत साय हन्त्यम्लपित्तकम् ।। २ कान्तपात्रे वराकल्को व्युषितोऽभ्यासयोगत.। सिताक्षौद्रसमायुक्तः कफपित्तहर स्मृतः ॥
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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