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भिपकर्म - सिद्धि
बारहवाँ अध्याय
राजयक्ष्मा-प्रतिषेध
प्रावेशिक - राजयक्ष्मा शब्द की दो व्युत्पत्ति चरक संहिता में पाई जाती है । १ " यक्ष्मणा ( रोगाणा ) राजा" इति राजयक्ष्मा तथा "राज, चन्द्रमसो यस्मादभूदेप किलामय । तस्माद् राजयक्ष्म सज्ञेति" सर्वप्रथम नक्षत्रो के राजा चंद्रमा को यह रोग हुआ, अस्तु इस रोग का नाम राजयक्ष्मा पडा ।
पौराणिक कथा है कि प्रजापति को अट्ठाइस कन्यायें थी उन्होने सबका विवाह चंद्रमा से कर दिया परन्तु राजा चंद्रमा ने सभी रानियो को सम भाव से नही देखा केवल एक में जो रोहिणी नाम की रानी थी उस में अत्यधिक आसक्ति दिखलाई । प्रजापति से शेप बन्यावो ने इस वात की शिकायत की और प्रजापति को क्रोध हुआ उन्होने शाप दिया और वह क्रोध यक्ष्मा के रूप में चंद्रमा के शरीर में प्रविष्ट हो गया और वे राजयक्ष्मा रोग से ग्रसित हो गये । राजा चंद्रमा को पश्चात्ताप हुआ वे गुरुकी शरण में गये उनकी अम्पर्थना की गुरु ने प्रसन्न होकर उनको पुन. स्वस्थ होने का आशीर्वाद दिया अश्विनीकुमारो ने उनकी चिकित्माकी और चद्रमा फिर ठीक हो गये ।
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इस पौराणिक कथा से इस रोग के वारे में लक्षणों के द्वारा कई काम के अर्थ निकलते है | जैसे--१. यह रोग - रोगराज या राजरोग या राज- यक्ष्मा है | अर्थात् एक राजा के समान बृहत् या विशाल रोग है जिसमें अनुचर के रूप में प्राय सभी छोटे-बड़े रोगो का जैसे, ज्वर अतिसार, रक्तपित्त और विपमाग्नि प्रभृति रोगो का अनुप्रवेश पाया जाता है । फलत इस रोग की इतनी विशालता है कि इस का सम्पूर्णतया सभी अवस्थावो के लक्षण, चिह्न और चिकित्सा प्रभृति वातो का ज्ञान हो जाय तो प्राय सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र का पण्डित हो जाना सभव रहता है क्योकि इस मे अधिकतर कायचिकित्मा-सम्बन्धी लक्षणो का अनुप्रवेश मिलता है । कई लेखको ने भी इस भाव की उक्तियाँ कही है कि "क्षय और फिरंग रोग को कोई चिकित्सक सम्पूर्णतया जान जाये तो वह सम्पूर्ण चिकित्सा ( कायचिकित्सा शास्त्र ) का ज्ञाता हो सकता हैं ।"
२ यह रोग राजा को हो जाय अर्थात् आढ्य और श्रीमन्त व्यक्ति को हो जाय तो वह अच्छा हो जाता है, परन्तु यदि किसी गरीव या दरिद्र व्यक्ति को हो जाय तो उसके लिये चिकित्सा और पथ्य की सुविधा न होने से प्राय असाध्य हो जाता है ।
३ यह रोग आहार-विहार के असयम से विशेषत. शुक्रक्षय की अधिकता से