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चतुर्थ खण्ड : सैतीसवाँ अध्याय
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वाग्भट ने आकृतिभेद से भी गोथो के पृथु उन्नत एव ग्रथित भेद से तीन प्रकार किये है | साध्यासाध्यता एव चिकित्सा भेद की दृष्टि से भी शोथो का एक वर्गीकरण पाया जाता है । जैसे प्रादज शोथ-पैरो से शोथ का प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण या आधे शरीर में फैल गया हो अथवा मुखज शोथ - मुख से शोथ का प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण या आधे शरीर मे व्याप्त हो गया हो अथवा गुह्यज या उदग्ज शोथ, जो गुह्य स्थान या उदर से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण या आधे शरीर मे व्याप्त हो । इन शोफो में उपद्रव होने पर पादज शोथ, जो प्राय हृदय के विकारो मे होता है । पुरुषो के लिये घातक होता है, मुखज शोथ, जो प्राय वृक्क विकारो मे पाया जाता है, स्त्रियो मे घातक होता है । गुह्यज शोथ अर्थात् गुह्य अङ्गो से शोफ का प्रारम्भ हुआ हो और उपद्रव युक्त हो, तो स्त्रीपुरुष दोनो को समान भाव से घातक सिद्ध होता है । " इसका कारण मर्माङ्गो का विकार ग्रस्त होना ही है पुरुषो मे हृद्रोग असाध्य होता है जिसमें पादज शोध पाया जाता है । स्त्रियो मे वृक्क रोग होने से उसके उपसर्ग का प्रभाव श्रोणिगुहा के विविध अङ्गो को शोथयुक्त करके श्रोणिगुहागत पाक प्रभृति साघातिक उपद्रव पैदा करके स्त्रियो के लिये विशेष रूप से घातक होता है । इनमे मुखज शोथ ही प्रारम्भिक लक्षण के रूप मे पैदा होता है । गुह्यज या उदरजशोथ क्षयज आन्त्रावृति शोफ (TB Peritonitis) या यकृद्दाल्युदरज जलोदर (Hepatic cirhosis ) मे पाया जाता है जो दोनो लिङ्गो के व्यक्तियो मे समान भाव से घातक सिद्ध हो सकता है ।
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शोफ की सम्प्राप्ति - रक्तवह सिरा की दृष्टि होने मे रक्ताभिसरण क्रिया में बाधा होने से शोथ रोग की उत्पत्ति मानी जाती है । प्राकृतावस्था में रक्तवह सूक्ष्म केशिकावो ( Arterial capillaries ) को दीवाल से पोपक पदार्थयुक्त रक्त रस स्रवित होकर तत्स्थानगत धातुवो का पोषण करता है, फिर वहाँ से त्याज्यपदार्थयुक्त वही रक्तरस सिरा सूक्ष्म केशिकावो ( Venous capillaries ) के द्वारा शोषित होकर उससे लेकर लोटता है और विविध विसर्जन अंगो द्वारा उसका निर्हरण करता है । इस प्रकार की क्रिया प्राकृतावस्था में चलती रहती है । जब किसी भी कारण से इस धातुगत रस के शोषण मे बाधा उत्पन्न होती है या स्रत रक्त रस अधिक होने लगता
१. अनन्योपद्रवकृत
शोथ:
पादसमुत्थितः ।
पुरुष हन्ति नारीञ्च मुखजो गुह्यजो द्वयम् ॥ ( वा. नि १३ )