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भिपकर्म-सिद्धि है, तब धानुवो के संयोजक वातुवो में अधिक तरल का सचय होने लगता है और वहाँ उत्पध या उभार पैदा होता है इसी को गोथ कहा जाता है।'
इस प्रकार के परिवर्तन मामान्यतया निम्नलिखित कारणो मे होते है जिनके परिणामस्वरूप गोथ रोग पैदा होता है ।
१ धातगत परिवर्तन-धानुबां में लवण जसे कतिपय पदार्थों के सचय हो जाने पर उनको घोलने के लिा अधिक जल को आवश्यकता पड़ती है और अधिक जल-मचर, गोय की उत्पत्ति होती है ।
२ रक्तगत विभिन्न संघटको का प्रभाव-इसम जल और नमक { Sodium chloride ) का अधिक महत्त्व है। शोथ की चिकित्मा मे जल और नमक का निपेव र देने ने गोय में निश्चित लाभ देखा जाता है। रन मे जल और लवण की अधिकता मे गाय अधिक बढता है।
३ रक्त र सगत 'प्रोटीन की कमी-जमा कि वृक्क विकारो मे शुक्लीमेह ( Albumainuria ) के कारण हीन पोपण से भोजन में प्रोटीन या जीवतिक्तियों ( Vit A & B ) की पर्याप्त मात्रा में न मिलना ( Femine oedema.) अथवा पाएदुरोग में रक्तगत 'प्रोटीन' गोणित वर्तुलि ( Haemoglobin ) का अत्यधिक मात्रा में कम हो जाना (अकुश कृमिजन्य पाएदुना या रक्ताल्पता मे ) गोय की उत्पत्ति होती है। ऐमा मानते है कि रक्त मे 'प्रोटीन' की मात्रा स्वाभाविक ७ प्रतिगत होनी चाहिए, जब यह मात्रा ५-५% से कम हो जाती है, आस्तृतीय सम्पीडन (Osmotic pressure) कम हो जाता है और वातुगत तरल का शोपण रक्तरम के द्वारा पूर्णतया नहीं हो पाता है, फलत धातुओ मे तरल या द्रव का सचय अधिक होने लगता है। जिसके परिणाम स्वरूप त्वचा मोर मास में उभार पैदा होकर गोय की उत्पत्ति होती है।
४ रक्तवह लोनगत भारवृद्धि हृदय रोग में रक्तसंचारगत वावा होने से गिरयो मे रक्तभार स्वाभाविक से बहुत अधिक हो जाता है। उससे गोपण कार्य में बाधा होने से तरल सचय होकर गोय पैदा होता है ।
५ स्त्रवणक्षमता को वृद्धि-कई बार आगन्तुक कारणो मे अभिघातज अणगाय में या रोगों में रक्तवाहिनियो को त्रवण क्षमता ( Permeability १ वनपिनम्फान् वायदृष्टो दृष्टान् वहि मिरा । नीत्वा रुद्वगनिम्तहि कुर्यात्त्वट्माससंश्रयम् । उन्ध नहतं गोयं तमाहुनिचयादत ॥ (मा नि )