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चतुर्थ खण्ड : सैतीसवां अध्याय
of capillary epithelium ) बट जाती है। सामान्यतया सिरास्रोतो की भित्ति से केवल जारक (02) और जल या उसमे घुले हुए कुछ सीमित द्रव्य ही स्रोत से बाहर आते है और तत्रस्थ धातुओ का पोपण करते है, परन्तु जव 'प्रोटीन' भी रक्तरस के साथ वाहर आ जाती है, तब इस तरल के शोषण मे बाधा उत्पन्न होकर शोथ पैदा होता है ।
शोथ रोग मे सामान्य लक्षण-गुरुता ( भारीपन ), अस्थिरता (शोफ का एक स्थान पर मीमित न रहकर फैलना), उत्सेध ( उभार), उष्णता ( यह केवल व्रणशोथ मे मिलता है--सामान्य शोथो मे नही ), रक्तवाहिनियो का विस्फार, रोमाञ्च ( रोगटे का खडा होना) तथा वर्ण की विकृति ये सामान्य रक्षण एव चिह्न शोथ रोग मे पाये जाते है ।
सामान्य क्रिया-क्रम-आमज शोथ में लघन एव पाचन करे, अति वढे हुए दोप मे शोधन से उपचार करे । अर्थात् शिरोगत शोथ मे नस्य के द्वारा गिरोविरेचन, ऊर्ध्वगशोथ मे वमन तथा अधोग शोथ मे रेचन के द्वारा उपचार करे । यदि शोथ का उत्पादक हेतु अति स्नेहन हो तो रोगी का रूक्षण करे और यदि उत्पादक हेतु अति रूक्षण ज्ञात हो तो स्निग्ध क्रिया करनी चाहिए ।२
इस प्रकार शोथ गेग की चिकित्सा मे लधन, पाचन, वमन, विरेचन, आस्थापन तथा शिरोविरेचन प्रभृति क्रियाओ के द्वारा यथादोष एव यथावल उपचार करना उत्तम रहता है।
विशिष्ट क्रियाक्रम-दोषानुसार विचार कर वातिक शोथ मे स्नेहपान एव कोष्ठबद्ध हो तो निरूहण (आस्थापन वस्ति ), पैत्तिक शोथ मे दूध एव घृत का उपयोग तथा श्लैष्मिक शोथो मे विरूक्षण की क्रिया करनी चाहिए। १ सगौरव स्यादनवस्थितत्व सोत्सेधमूष्माऽथ सिरातनुत्वम् । सलोमहर्पश्च विवर्णता च सामान्यलिङ्ग श्वयथो प्रदिष्टम् ॥ .
(च चि १२) २ अथामज लघनपाचनकमविशोधनैरुल्वणदोपमादितः । शिरोगत शीर्पविरेचनरधोविरेचनरूप्रहरैस्तथोर्ध्वगम् ॥
उपाचरेत् स्नेहभव विरूक्षण. प्रकल्पयेत्स्नेहविधिञ्च रूक्षणे ॥ ३. स्नेहोऽथ वातिके शोथे बद्धविट्के निरूहणम् ।
पयो घृत पैत्तिके तु कफजे रूक्षणक्रमः ।। ४ लघन पाचन शोथे शिर कायविरेचनम् । वमनञ्च यथासत्त्व यथादोप विकल्पयेत् ।।