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भिपकर्म-सिद्धि और पल्लवित हो जाता है उसी प्रकार से ठीक समय से गुदा के दारा दी गई अनुवासन बस्ति के द्वारा भी शरीर बलवान् बनता है इतना ही नहीं, वायु के कारण स्तब्ध ( सकुचित) हुये अगो मे, भग्न मे पीडित रोगियों में, गाखागत वात रोगो मे, आध्मान प्रभृति उदर रोगो मे, वार-बार होने वाले गर्भ त्रावो मे मीण इन्द्रिय के पुरुपो मे कृग तया दुर्वलो मे भी वस्ति कर्म प्रगस्त रहता है। ___ वस्ति का प्रयोग आवश्यकतानुमार रोगी की दगा, देश और काल का विचार करते हए करना चाहिए। यदि रोगी उष्णता ने पीडित हो तो उनमे गीतल वस्तियो का प्रयोग उचित होता है । यदि रोगी मे गोवन अपक्षिन हो ता रुक्ष या निरूह वस्तियो का उपयोग करे तथा वृहण की आवश्यकता होने पर स्निग्ध वस्तियो का उपयोग उचित है । इस नियम के विपरीत गोधन के योच रोगी में वहण या वृहण के योग्य रोगी मे गोधन कदापि नहीं करना चाहिए। यदि रोगी क्षत-मीण से युक्त अर्थात् क्षयी या गोपी (T B ) हो उसमे विगोधन न करे। ठीक इसके विपरीत कुष्ठ प्रमेह, प्रभृति अन्य गोधनीय रोगो से पीडित मनुष्यो मे वृहण न करे क्योकि ये रोगी सदा ही संगोधन के लिए माने जाते है।'
afea FT HETT ( Importance of Enemata ) - काय-चिकित्मा में वस्ति का वडा महत्व दिया गया है। गल्य-चिकित्सा में भी इसकी महत्ता क्म नही समझनी चाहिए । शल्य-चिकित्सा मे रक्तावसेचन क्रिया को जो स्थान प्राप्त है वही स्थान काय-चिकित्सा में वस्ति को दिया गया है। वस्तिका प्रयोग दोप, औपधि, देश, काल, सात्म्य, सत्त्व, वय, वलादि का विचार करते हुए करना होता है।
वस्ति की बनावट तथा उसका प्रतिनिधि (Structure of the old Clyster, its modern substi tute ) प्राचीन ग्रथो में एक सामान्य वस्ति को रचना इस प्रकार की बतलाई गई है। वस्ति के चार भाग वतलाए गए है। (१) बस्ति ( Bladder ) (२) नेत्र (नलिका Tube) (३) छिद्र (opening)(४) कणिका (Ampula) . (१) वस्ति:-यह वस्ति पुराने शरीर के गाय, भैन, हरिण, सूअर, और वकरी के मूत्राशय से बनाई जाती है। इन जानवरो में से किसी एक के मूत्राशय १ उष्णा भिभूतेषुवदन्ति गीताञ्छीताभिभूतेषु तथा सुखोष्णान् तत्प्रत्यनोकोपन्च मंप्रयुक्तान् सर्वत्र वस्तीन् प्रविभज्य युङ्ग्यात् । न वृहणीयान् विदधीत वस्तीन विरोधनीयेपु गदेपु विद्वान् कुष्ठ प्रमेहादिपुमेदुरेपु नरेपु ये चापि विशोधनीयाः । (च सि १)