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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय
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प्रकृतिस्थ रखना भी वस्ति मे सभव है । अत स्वस्थ वृत्त की दृष्टि से भी वस्ति का महत्त्व कम नही है ।
शल्य तन्त्र में रक्तविस्रावण या शिरावेध का जो महत्त्व है काय-चिकित्सा मे उसी तरह का स्थान इन वस्तियो का हे । शल्य तन्त्र मे भी सिरा वेध आदि का विधान है " रक्त के निकल जाने से सम्पूर्ण विष का निर्हरण हो जाता है" विप की निवृत्ति में जितने भी कर्म बतलाए गए है, वे सभी एक तरफ एव रक्तमोक्षण अकेले ही दूसरी तरफ खड़ा हो सकता 1
" शिराव्यधश्चिकित्सा र्द्धगल्यतन्त्रे प्रकीर्तितम् । यथा प्रणिहित सम्यक् वस्तिकायचिकित्सिते । ( सु )
प्रयोजन :
वस्ति का उपयोग तीन प्रकार के कार्यो मे होता है :
(१) पच कर्म मे ( शोधन मे ) ।
(२) अनागत रोगो के प्रतिपेध ( स्वास्थ्य रक्षण या रोग निवारण Profilaxis)
(3) रोगो की चिकित्सा मे ( Curative ) ।
वय ( Age )
वालक तथा वृद्ध मे
वस्ति को सर्वरोग
सभी उम्र के रोगियो मे वस्ति का उपयोग पथ्य है । इसका प्रयोग शिशु, वृद्ध, युवक मे किया जा सकता है । वमन तथा विरेचन का निपेध है वहां पर भी वस्ति का प्रयोग लाभप्रद होता है । हर कहा है । वस्ति को सर्वरोगहर कहने का तात्पर्य यह है दोपो का सगोवन हो जाता है और वह सशोधन के द्वारा सभी रोगो मे लाभ पहुचाती है । ठीक ढंग से प्रयोग में लाई गई वस्ति के द्वारा कोई भी हानि नही होती । वस्ति आयु को स्वस्थ करती है तथा सुख, आयु, बल, अग्नि, मेधा, स्वर और वर्ण को बढाती है । वस्ति के दो प्रधान भेद होते है । यथा १ रूक्ष वस्ति
कि वस्ति के द्वारा
तथा २ स्निग्ध वस्ति ।
रूक्ष वस्तियो के द्वारा दोषो का सशोधन तथा सशमन और स्निग्ध या तैल वस्तियो के द्वारा स्नेहन, वीर्य तथा बल की पुष्टि होती है । वायु का कोप दो ही प्रकार से हो सकता है ।
"वायोर्धातो क्षयात्कोपो मागस्यावरणेनवा" इनमे मार्गावरण का दूरीकरण रूक्ष वस्तियो से और धातु क्षय का पूरण स्निग्ध वस्तियो के द्वारा होता है । इसलिए वस्ति को परम वायुशामक माना गया है स्निग्ध वस्तियो का वर्णन करते हुए आचार्यो ने लिखा है जैसे कि पेड़ की जडमे जल डालने से जिस प्रकार वह पुष्पित
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