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भिपकर्म-मिद्धि, मा पकना) को दूर करती है । बायु को रियर करती है। भली प्रकार उपयोग में लाई गई वस्ति शरीर की पुष्टि, बल, वर्ण और आर को बढाती है।
बस्ति या उपयोग वात में, पित्त में, कफ में, कमें, दोपो देगा में नय दोपो के मन्निपात में मदेव हितावह होता है। महर्षि चरक ने लिग है "गाकोष्टगत, मर्मगत, ऊर्वजत्रुगत, एकाग गत, अदिगत, अथवा नमाजगत जो भी कोई रोग उत्पन्न होता है उसकी उत्पत्ति में वायु के सिवा और कोई दूसरा मुख्य कारण नहीं है । यह वायु ही कफ-पित्त-पुरीप-मन-बैट बादि मलो का मचय नाग एव वाहर फेरने वाली है। उन बाय की बलि के अतिरिक्त कोई दूसरी दवा नहीं है। अत चिकित्मा का आधा भाग वस्ति ही है। भोर कई व्यक्तियों के विचार मे तो बस्ति ही सम्पूर्ण चिकित्मा है।"
रोगोत्पादन तथा शरीर के धारण दोनो ही कार्यों में वायु की मन्यता है। रोगोत्पत्ति में वायु दोप को प्रधानता प्रसिद्ध है ही। __ "पित्त पगु कफ. पगु पगवो मलघानब , बायना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥"
अर्थत् पित्त और कफ दोष तो पगु है अर्थात् स्वयं गमनगोल नहीं है उनमें चलने को गक्ति तो वाच की महानता मेही माती है। पित्त योर फकी उपमा बादलो मे दी गई है और वायु की हवा मे। हवा जहाँ चाहे ले जाकर पानी बरमा दे । वायु, कफ और पित्त की वृद्धि और स्थाननश्रय कराके जहाँ चाहे रोग पैदा करदे ।
स्त्रम्य गरीर में भी वायु को "यन्त्रतंत्रवर" मम्पूर्ण गरीर और मन न अधिपति और मचालन के रूप में स्वीकार किया गया है । वह गरीर का धारक है। इसके विकृत होने पर गरीर का बारण मभव नहीं रहता है । इस वायु का १ वस्तिर्वय स्थापयिता मुन्वायुर्वलाग्निमेधास्वरवर्णकन्न । मर्यिकारी गिगुवृद्धयूना निरत्यय सर्वगदापहन्त्र ।। गाखागता कोष्ठगताञ्च रोगा मर्मोनर्वावरबाङ्गजाश्च । ये मन्ति तेपा नहि कञ्चिदन्यो वायो परं जन्मनि हेतुरनि । विण्मूत्रपित्तादिमलाशयाना विक्षेपमवातकरच रस्मात् ॥ तम्यानिवृद्धस्य गमाय नान्यद् वस्ति विना भेपजमस्ति किचित् । तस्माच्चिक्त्मिार्वमिति त्रुवन्ति मळ चिक्त्मिामपि वस्तिमेके ।। मूलं गुदं गरीरस्य सिरान्तत्र प्रतिष्टिता । (च सि १) म गरीर पृष्णन्ति मूर्वानं यावदायिता ।। परागरे-चक्रपाणि टीका ।