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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १२६ बुझाने से जैसे अग्निगृह शीतल हो जाता है। उसी प्रकार पित्त के विरेचन से पुरुप-गरीर को शान्ति का अनुभव होता है ।
अविरेच्य (Contra-indication of Purgation) - सुमार, गुदक्षत, मुक्तनाल, अधोग रक्तपित्त, दुर्बलेन्द्रिय, अल्पाग्नि, निरूढ ( जिनका आस्थापन हो चुका है ), श्रमादि से व्यग्न, अजीर्ण, नवज्वर, मदात्यय, अति आध्मान, गल्य से पोडित, अभिहत, अतिस्निग्ध, अतिरूक्ष, क्रूरकोष्ठ, क्षतादि तथा गर्भिणी मे विरेचन नही करना चाहिए । __वमन कर्म में प्रयुक्त होने वाले प्रधान भेपज-मदनफल, मधुयष्टि, नीम की पत्ती, जीमूत, पटोल, कृतवेवन ( कडवी तरोई की जातिया ), पिप्पली, कुटज, इक्ष्वाकु, एला, धामार्गव ।' __ विरेचन कर्म में प्रयुक्त होने वाले प्रधान भेषज-त्रिवृत--( काली निशोथ ), त्रिफला, दन्ती, नीलिनी, सप्तला ( सेहुड की जाति का क्षीर), वचा, काम्पिल्लक ( कवीला ), गवाक्षी, क्षीरिणी ( दूधिया ), निचुल ( हिज्जल ), उदकीर्या पील आरग्वध ( अमलताश ), द्राक्षा, द्रवन्ति ( दन्तीभेद २
( इन वामक एव विरेचक औपधियो के विस्तार के लिये चरक विमानस्थान का आठवां अध्याय द्रष्टव्य है।)
द्वितीय अध्याय वरित तथा वस्ति कर्स ( Clysters or Enema & its Application ) निरुक्ति:
पंच कर्मो मे एक अन्यतम महत्त्व का कर्म वस्ति कर्म है। वस्ति के द्वारा अनेक कार्यों का सम्पादन होता है । आयुर्वेद ग्रथो मे वस्ति कर्म को बहुत प्रशसा पाई जाती है । "वस्ति कर्म में प्रयुक्त होने वाले द्रव का निर्माण नाना प्रकार के
औपवि-द्रव्यो के सयोग से किया जाता है फलत. उन उन औपधियो के प्रभाव से वस्ति के द्वारा सशोधन, संशमन तथा सग्रहण यथोचित मात्रा में करना सम्भव रहता है। __वस्ति क्षीणशुक्र को शुक्रवान बनाती है। दुर्बल को बलवान करती है, स्थूल को कृश करती है। आँखो को तेजस्वी करतो है, झुर्रियो का पडना, पलित (केशो
१ उपस्थिते श्लेष्मपित्ते व्याधावामाशयाश्रये । वमनाथं प्रयुजीत भिषग्देहमदूपयन् ॥ २ पक्वाशयगते दोपे विरेकार्थं प्रयोजयेत् । ( चरक सूत्र २ )
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