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चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय सोठ । इन द्रव्यो को वकरी के मूत्र मे पीसकर गोली बनाकर रख लेना चाहिये । इसे प्रचेतना गुटिका कहते है। इसके अजन से अचेत रोगी मे चेतना जाग्रत होती है।
मृट्ठीकादि कपाय-मुनक्का, देवदारु, कुटकी, नागरमोथा, आमलकी, हरीतकी, गुडूची, अमल ताश, चिरायता, पित्तपापडा और पटोल पत्र का क्वाथ अथवा ब्राह्मी, पाढल, पटोल पत्र, सुगधवाला, पर्पट, हरीतकी, अमल्ताश, कुटकी और गखपुष्पी ( ददुरदलादि कपाय) का पिलाना उत्तम होता है।
१२ रुग्दाह सन्निपात-इस प्रकार मे सन्निपातज विपमयता के कारण ज्वर का वेग अधिक होता है, दाह, तृपा की अधिकता होती है। अस्तु उपचार में वात-पित्त गामक उपाय करना पडता है। एतदर्थ निम्नलिखित क्रियाक्रम उत्तम पाये जाते है।
१ पडङ्ग पानीय-खस, रक्तचदन, सुगधवाला, द्राक्षा (मुनक्का), आंवला और पित्तपापडा इन सब द्रव्यो का पानीय विधि से पानीय बनाकर पीने के लिये देना चाहिये।
२ लेप-वर की पत्तियो को दही के साथ पीसकर अथवा कपूर, सफेद चदन तथा नीम के पत्रो को तक के साथ पीसकर लेप करने से दाह शान्त होता है। अथवा नीम की पत्तियो को पीसकर एक हडिका मे रख कर पानी मिलाकर मथन करने से जो फेन उठता है उस फेन का लेप भी दाह का शामक होता है।
३ अवगाहन-शीतल जल मे सौ वार धुले हुए गाय के घी मे, सफेद मलय गिरी चदन को घिसकर मिलाकर पूरे बदन मे लेप कर, पश्चात कमल और कुमुदिनी के पुष्प को माला धारण कर के ठडे जल से पूर्ण पात्र मे बिठाना और डुवको लगाकर स्नान करने से शरीर का दाह शीघ्र शान्त होता है।
४ अवगुण्ठन-रुग्दाह ज्वर वाले रोगी को काजी से भीगे हए वस्त्र के अथवा गाय के तक्र मे भिगोये हुए वस्त्र के उढाने से दाह दूर होता है और ज्वर का वेग हल्का हो जाता है। अत्युच्च तापक्रमो ( Hyperpyrexia ) मे ठडे जल मे या वरफ के पानी मे तौलिया भिगोकर निचोडकर पूरे शरीर का परिमार्जन ( Cold sponging ) भी इसी प्रकार की क्रिया है।
५ हिमपुटक ( Ice-cap )-सिर के ऊपर वरफ से भरी थैली का रखना भी दाह और ज्वर को कम करता है।
६ आहार-विहार-दाह और वमन से पीडित दुर्वल और निराहार रहने वाले रोगी को भोजन मे धान के खील का सत्तू, मिश्री और पानी मिलाकर पीने के लिये देना चाहिये।