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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय
१४७ सिद्ध-वस्ति:-ऐसी वस्तियो का प्रयोग सदा किया जाता है । ये वस्तियां व्यापद्-रहित, बहुत फल देने वाली, बल एव पुष्टि करने वाली और सुखदाई होती है। इन वस्तियो का उपयोग विभिन्न रोगो की चिकित्सा मे तथा बल-वर्ण की वृद्धि के लिए होता है । इनसे नाना प्रकार के रोगो मे चिकित्सा करते हुए सफलता मिलती है, अतएव इन वस्तियो को सिद्ध वस्ति कहते है । अरुण दत्त ने एक वृद्ध सुश्रुत के श्लोक का उद्धरण देते हुए बतलाया है कि "सिद्ध वस्ति उन वस्तियो को कहते है जिनका बिना किसी प्रकार के पथ्य के प्रयोग करने से भी सफलता निश्चित मिलती है।" जैसे, पचमूल क्वाथ, तिल तैल, पिप्पली, मधु, सैन्धव और मधुयष्टि को एक मे मिला कर वस्ति देना। ___ माधुतैलिक वस्ति ----यह एक प्रकार की निरूह वस्ति ही है। इसमे मधु एव तेल की विगेपता रहती है । अत माधुतैलिक वस्ति कहलाती है। मधु-तैल समान, संधव एक कर्ष, सौफ २ कर्ष, इनको एरण्डमूल क्वाथ के साथ दिया जाय तो यह निरूह रसायन, प्रमेह, अर्श, कृमि, गुल्म और आन्त्रवृद्धि का नाशक होता है । "यस्मान्मधु च तेल च प्राधान्येनात्र वर्तते । माधुतैलिक इत्येप विज्ञेयो वस्तिचिन्तक "।
युक्तरथ वस्ति ---एरण्डमूल के क्वाथ मे मधुतल-सैन्धव-वच-पिप्पली और मैन फल को मिलाकर दी गई वस्ति युक्तरथ कहलाती है। जिस प्रकार वृपभ, ऊँट एव घोडे से जुते हुए रथ को जब चाहे चालू करदे, उसी प्रकार इन वस्तियो का भी प्रयोग सब समय किया जा सकता है, इनमे किसी प्रकार निपेध नही है। इसी लिए इन्हे युक्तरथ कहते है।
दोपनाशक वस्ति :-दोपो के अनुसार वातघ्न, पित्तघ्न और श्लेष्मघ्न कई प्रकार की वस्तियाँ भी बनाई जाती है जिनका दोषानुसार प्रयोग अपेक्षित रहता है । जैसे एरण्डमूल के क्वाथ मे मधु, वच, सौफ, हिंगु, सेंधानमक, देवदारु
और रास्ना मिला कर दी गई वस्ति मूत्राशयगत दोषो को दूर करती है। ___ यापना वस्ति :--मधु, घृत, वसा, तैल एक-एक प्रसृत-सैन्धव १ कर्प, हाऊवेर आधा पल इनके मिश्रण से यापना वस्ति बनती है। इन वस्तियो के द्वारा आयु का दीर्घ काल तक अनुवर्तन होता रहता है । अतः ये यापना वस्तियाँ कहलाती है।
शुक्रकरण वस्ति, शुक्रवर्धक वस्ति, वाजीकरण वस्ति । तित्तिरादि मास रस की वस्ति, गोवादि मासरसो की वस्ति प्रभृति कई विशिष्ट वस्तियो का उल्लेख भी शास्त्रो मे पाया जाता है।