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भिपकर्म-सिद्धि
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जो मनुष्य यथासमय एव नास्त्रोक्त विधान के अनुसार नस्य कर्म का सेवन करता है उनकी स, नाक और कान नही मारे जाते । उसके बाल और दाढी कबाल सफेद और कपिल ( कुछ पीले ) नही होते, उनके बाल झरते नहीं, बल्कि विशेष वढते है । मन्यास्तम्भ, गिर की पीटा, अदित, जबडो का जकड जाना, पीनस अवकपारी और गिर का कापना शान्त हो जाता है । नस्य द्वारा तृप्त सिर की मिराएं, मन्वियाँ, स्नायु और कण्डराए अधिक बल प्राप्त करती हैं । मूस प्रमन्न तथा पुष्ट, स्वर स्निग्ध महान और स्थिर, सभी इन्द्रियों में स्वच्छता एव अधिक बल होता है । उसकी हँसलियो ( अक्षक ) के ऊपर के भाग में उत्पन्न होने वाले रोग एकाएक नही होते । वृद्ध होने पर भी उत्तमाग ( ग्रीवा के ऊपर ) में वुढापा वल नही प्राप्त करता है ।
शिरोविरेचन के अयोग्य रोगी ( Contra Indications ):(१) अजीर्ण - पीडित, भोजन किए, स्नेह-मद्य, अधिक जल पिए, या तृपायुक्त ( पीने की इच्छा वाले व्यक्ति ), मिर से स्नान किए व्यक्ति, स्नान के लिए इच्छुक मार्त्त व्यक्ति, भूख-प्यास और थकावट से दुखी, मद से मत्त, मूच्छित, शस्त्र या उडे से चोट खाए व्यक्ति, मैथुन व्यायाम और मद्यपान से क्लान्त व्यक्ति शोक से मतष्ठ, विरिक्त, अनुवासित, गर्भिणी, नव प्रतिव्याय से पीडित व्यक्ति में, विपरीत ऋतु तथा दुर्दिनो में शिरोविरेचन नही करना चाहिए । यदि अत्यावश्यक अवस्था ( Emergency ) हो तो इनमे गिरोविरेचन करावे अन्यथा नही |
शिरोविरेचन के योग्य ( Indications ) — उपर्युक्त अवस्थाओं के अतिरिक्त व्यक्तियो मे शिरोविरेचन करे । विशेषतः शिरोरोग, दन्तरोग, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, हनुग्रह, पीनस, गलशुण्डिका, कण्ठशालूक, शुक्र (Corneal opacity. ), तिमिर ( Progressive cataract ), वर्त्मरोग (Diseases of Eyelds ), व्यंग (झाई) ( Black Pigmintations ), हिक्का, अर्धावभेदक ( Migrain ), ग्रीवा, स्कन्ध-अस आस्य, नासिका, कर्ण, अक्षि -- ऊ कपाल तथा सिर के रोगो में, अदित ( Facial Paralysis ), अपतन्त्रक ( Hysteria ), अपतानक ( Tetanus ) गलगण्ड ( Goiter ), दन्तशूल - दन्तहर्प ( Odontitis ), चलदन्त ( दाँतो का हिल जाना ( Pyorrhoea ), अक्षिराग, अर्बुद, स्वरभेद, वाग्ग्रह (Aphasia ) गद्गदकथन ( Stammering ) तथा ऊर्ध्वजत्रु के परिपक्व वातिक विकार । इन अवस्थाओं में गिरोविरेचन एक प्रधान कार्य है । गिरोविरेचन के द्वारा इस दशा मे जिस प्रकार मूज से सीकेँ निकाल ली जाती है और