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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १५५ की निर्मलता और हल्कापन उत्पन्न करता है। वमन के पीछे सेवन किया प्रतिमर्श नस्य स्रोतो मे लगे कफ को हटा कर भोजन मे रूचि उत्पन्न करता है। दिन मे सोकर उठने पर लिया नस्य निद्राशेपजन्य भारीपन और मल को दूर कर चित्त की एकाग्रता उत्पन्न करता है। साय काल लिया नस्य सुख-पूर्वक नीद लाता है।
दोपानुसार स्नेह की भिन्नता:-वायुयुक्त कफ मे तैल का प्रयोग शुद्ध वायु मे वसा का प्रयोग, पित्त मे घी का और वायुमिश्रित पित्त मे मज्जा का नस्य देना चाहिए । इन चारो मे तैल का ही उपयोग विशेपत कफविरोधी होने से होता है।
नस्य कर्म के भेद:-ऊपर मे विधिभेद से पाँच प्रकार के नस्य बतलाए जा चुके है। गुणो की दृष्टि से विवेचना की जाय तो वे मूलत तीन प्रकार के ही होते है।
(१) विरेचन ( २ ) वृहण ( ३ ) शमन । इनमे विरेचन नस्यो का प्रयोग गिर गूल, सिर की जडता, नेत्र के अभिष्यन्द रोग, गले के रोग, शोथ, गण्डमाला, कृमि, ग्रन्थि, कुष्ठ, अपस्मार और पीनस मे करना चाहिए।
बृहण नस्य का प्रयोग वातजन्य शिर शूल मे, सूर्यावर्त मे, स्वरक्षय मे, नासागोप-आस्य शोष मे, वाणी की जडता होने पर कठिनाई से बोलने मे तथा अववाहुक रोग में होता है।
शमन नस्य :-नीलिका, व्यग, केश रोग, अक्षि रोगो में अथवा आखो में रेसा होने पर वरतना चाहिए।
संक्षेप मे तीव्र सोठ, मिर्च, पिप्पली आदि से संस्कृत या बना हुआ, मधु या सैन्धव का यौगिक विरेचन नस्यो की कोटि में आते हैं और जागल मासरस से बनाए या रक या गोद मिश्रित नस्य वृहण होते है और अत्युषण घी और तेल, दूध या पानी से युक्त नस्य समान गुण के होते है ।
नस्य कर्म के गुण -नस्यो से मनुष्य के जत्रु से ऊपर के रोग शान्त हो जाते है, इन्द्रियो मे निर्मलता तथा मुख मे सुगन्ध पैदा होती है । हनु, दात, शिर ग्रीवा, त्रिक, बाह मोर छाती मे बल आता है, वलि, झुर्रियो का पडना, पलित ( केशो का पडना), खालित्य ( सिर गजा होना ), व्यग (झाई ) भी उत्पन्न नहीं होते।
वास्तव मे जत्रु से ऊपर के रोगो मे नस्य वरता जाता है। शिरोरोग मे इसका विशेष उपयोग होता है क्योकि शिर का द्वार नाक है और इस नाक के मार्ग मे नस्य सिर मे फैलकर उन रोगो को नष्ट करता है।