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चतुर्थ खण्ड : तेइसवॉ अध्याय
४४७ जाते हो) अंधेरे में डाल दे। इससे रोगी का विभ्रान्त चित्त शान्त होता है और रोगी का औद्धत्य भी शान्त हो जाता है। दांत निकाले हुए निर्विष सर्प से कटाने का भय दिखलाना, भयङ्कर सिंह या हाथी के सामने खडाकर उनसे भयभीत करना । तेज शस्त्र को दिखलाकर उससे काट देने का भय देना अथवा नामने उसके शत्रु या चोर-डाकू को खडाकर उससे डराना। अथवा राजपुरुष (पलिस ) आदि से पकडाकर बंधवा कर घरसे बाहर निकलवाना अथवा अन्य प्रकार से उसे प्राण का भय दिखलाना । तप्त किया लाल लोहे से या उबलते जल से स्पर्श करा के भयभीत करना ।
उन्मत्त रोगी के औद्धत्य को कम करने के लिए उसको सरसो के तेल की मालिश करके चारपाई से बांधकर धूप मे चित्त पीठ के बल लेटाकर रख देना चाहिए। केंवाछ की फली को लेकर उसके शरीर की त्वचा पर रगड देना। इससे तीव्र कण्डु होती है । रोगी चेतना मे आ जाता है।
इस देह के कप्ट तथा भय से प्राय रोगियो में सुधार होता है यदि सुधार न हो तो प्राण के भय से तो वह जरूर ही चेतना मे आ जाता है। सब प्रकार से रोगी का विभ्रान्त मन शान्त होता है। इस प्रकार तर्जन ( वाणी से डांट टपट करना), त्रासन ( राजपुरुष पुलिस आदि से डटवाना), दान ( अभिलपित पदार्थ पथ्य हो तो देना), हर्षण (प्रसन्न करना ), सान्त्वना ( आश्वासन देना या तसल्ली देना), भय (भयभीत करना या डराना ), विस्मय (आश्चर्य पैदा करने वाले विषय ) प्रभृति उपचारो मे रोगी उन्माद के उत्पादक हेतुवो को विस्मृत कर देता है और उसका मन प्रकृति मे आ जाता है।
जव रोगी का मन प्रकृतिस्थ हो जावे तो उसको विविध प्रकार के प्रदेह ( लेप), उत्सादन ( उवटन ), अभ्यङ्ग (तेल की मालिश ) धूमप्रयोग (धु वा
१.शद्धस्याचारविभ्रंशे तीक्ष्ण नावनमञ्जनम् । ताडन वा मनोबुद्धिदेहसंवेजन हितम् ॥ य सक्तोऽविनये पट्ट. सयम्य सुदृढ. सुखै. । अपेतलोहकाष्ठाद्य सरोध्यश्च तमोगृहे । कशाभिस्ताडयित्वा वा सुबद्ध विजने गृहे । रुन्ध्याच्चेतो हि विभ्रान्त बजत्यस्य तथा शमम् ॥ सर्पणोद्धृतदंष्ट्रण दान्त सिंहगंजैश्च तम् । त्रासयेच्छस्त्रहस्तैर्वा तस्करै शत्रुभिस्तथा ॥ अथवा राजपुरुषा बहिर्नीत्वा सुसयतम् । त्रासयेयुर्वधन तर्जयन्तो नृपाज्ञया ॥ देहदु खभयेभ्यो हि परं प्राणभयं स्मृतम् । तेन याति शम तस्य सर्वतो विप्लुत मन. ।। तर्जनं त्रासन दान हर्पणं सान्त्वन भयम् । विस्मय विस्मृतेर्हेतोनयन्ति प्रकृति मन. ॥