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भिपकर्म - सिद्धि
वस्ति मुख्यतया दो प्रकार की होती है | अनुवासन और निरहण | उनमे विरेचन वर्ग के अनन्तर यदि वस्ति कर्म करना हो तो सर्वप्रथम अनुवासन का ही उपयोग करना चाहिए। रोगी के विरेचन के बाद उनका मगर्जन करते हुए उसको प्रकृत आहार पर आठवें दिन आ जाने के बाद नीचे दिन से अग करा के अनुवासन देना चाहिए | तद्नन्तर आग्यापन वस्ति या निम्हण करे । आस्थापन और अनुवासन संबन्धी कतिपय नियम
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क- अनुवासन :
(२) नाति वुभुलित ( जब रोगी को भूल तेज न लगी हो तब ) वस्तियों में निरूह का प्रयोग करे 1
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(२) नात्यगित ( अल्प भोजन किए ) रोगी में अनुवासन करना चाहिए । (३) वस्तियो के अनन्तर समर्जन क्रमने पथ्य व्यवस्था की आवश्यकता नही रहती । वस्ति द्रव्य निकल जाने वाद उम रोगी को मातरम ( जागल ) के नाथ भोजन देना चाहिए ।
(४) स्नेहपान के सम्बन्ध में जिन पथ्य एवं परिहारों की आवश्यक्ता होती है उनी प्रकार का पथ्य एवं परिहार अनुवामन कर्मों मे भी रखना चाहिए । गीत तथा वमन्त ऋतुओं में दिन में अनुवासन करे । नरद्, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओ में रात्रि में यदि रोगी वायु से अतिपीडित हो तो और यह वायु का कोप धातुक्षयजन्य हो तो पूर्वार्द्ध मे दिन में या रात मे सत्र समय वस्ति दी जा सकती हैं ।
(५) अनुवासन द्रव्य के बाहर निकल आने पर मे अनुवासित व्यक्ति को प्रात काल और दिन में मै भोजन देना चाहिए ।
भोजन देना चाहिए । रात अनुवामित को साथ काल
(६) यदि व्यक्ति बहुत रुक्ष और उनको वायु बहुत वटी हुई हो तो प्रतिदिन अनुवासन किया जा सकता है, अन्यथा तीनरे दिन, पांचवें दिन अनुवासन देना चाहिए | क्यो कि अधिक अनुदामन में अग्नि के मन्द होने का भय रहता है ।
(७) अनुवासन वस्तियो की मरुना विपम ( अयुग्म या ताक) होनी चाहिए । कफज विकारों में एक या तीन, पैत्तिक विकारों मे पाच या नात और वायु के रोगो में नौ या ग्यारह की मख्या में वस्तियो को दे । इस प्रकार ययावश्यक ३,४,६ या ७,८, ६ या ११ वस्तियाँ भी दी जा सकती है ।
(८) उष्णाभिभूत व्यक्तियो मे शीतल वस्ति ( Icewater ) और गीताभिभूत रोगियों में सुखोष्ण वम्ति दे । इसी तरह स्ति में प्रयुक्त औषधियाँ भी व्याधि के गुणो से विपरीत गुणधर्म की हो होनी चाहिए । अर्थात् स्निग्ध, गुरु,