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भिपकर्म-सिद्धि अधिक होती है, जिससे ये रुचिकर, लघु एव गोत्र पचने वाले हो जाते है। चतुर्गण जलमे औपधिको छोडकर कुछ मिनट तक आगपर रख कर मल कर छान लेने को फाण्ट ( जसे चाय बनाई जाती है ) कहते हैं। छ गुने जल मे औपवि को शाम को भिगो कर सुवह छान लो जाती है। उसे गीत कपाय या हिम कहते है । स्वरस की मात्रा अल्प रहती है और रस को ओपधियो के अनुपान रूप में व्यवहृत होते है अस्तु इनका प्रयोग विधेय हो जाता है । शृत-गीत जल की कल्पना का ऊपर में उल्लेख हो चुका है इस मे काष्ठौपधि की मात्रा अधिक गाढी (Concentrated) नही होती प्रत्युत हल्की (Dilute) रहती है और तरुण ज्वर मे उपयोग मे लाये जा सकते है ।
इस प्रकार कई आचार्य सात दिनोके पश्चात् औपधि देने को कहते है, दूमरे दस दिनोके बाद मीपधि देने का उपदेश देते है। कुछ लघु भोजन देने के अनन्तर भेपजका विधान करते है। वास्तवमें काल की प्रतीक्षा एक उपलक्षण मात्र है आम की अधिकता रहने तक ओपवि नही देनी चाहिये । यह बात सर्वमान्य है। अवस्था भेद से तीनो पक्ष मान्य है।'
भेपज तिक्त रस या कपाय:-इसके अनन्तर ज्वरनाशक क्वाथो का उपयोग ज्वर की चिकित्सामे करना चाहिये। क्वाथ या कपाय के बनाने की कई परिभाषायें हैं-जैसे-द्रव्य से चतुर्गुण या अष्टगुण या पोडग गुण जल छोड़ कर, खौला कर चौथाई ( पादावशेप) वचा कर छान कर पिलाना। उनमे तीसरी विधि का जिममें पोडगगुण जल मे औपधि को खौलाया जावे और चतुर्थाश बचा लिया जावे अधिक मान्य है। यही सर्वोत्तम है। क्वाय के निर्माण के लिये मिट्टी के वर्तन होने चाहिये और मध्यम आच पर क्वाथ का पाक होना चाहिये। क्वाथ में अरुचि हो तो ठंडा कर के एक तोला मधु मिला लेना चाहिये । क्वाथ का दिन मे एक वार प्रात काल मे प्रयोग होना चाहिये । आवश्यकताके अनुसार सायं काल में भी उसो क्वाथ्य द्रव्य में पानी डाल कर पुन खोला कर क्वाथविधि से जल को शेप कर पिलाना चाहिये। ज्वरघ्न कपाय अधिकतर तिक्त रस ( Bilter ) होते हे। क्वाथ्य द्रव्यो की जहाँ पर मात्रा नहीं लिखी है-समान मात्रा में लेना चाहिये और उस का जवकुट ( क्रूट ' छोटे छोटे टुकड़े ) कर लेने चाहिये फिर २ से २१ तोला द्रव्य को लेकर उन्ने ३२ तोले जलमे खोला कर ८ तोले शेप कर लेना चाहिये । साफ कपडे
सप्ताहादीपवं केचिदाहुरन्ये दगाहत. । चिल्लध्वन्नभुतस्य योज्यमामोल्बणे न तु । ( अ हृ चि १)