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भिकर्म-सिद्धि
ग्रहण करने वाले ), पिगाच (पिगित खाने वाले ), नाग (सर्प ग्रह ), ग्रह (वाल ग्रह ) से उपसृष्ट चेतस् ( मन ) वाले व्यक्तियो के गान्ति-बलिहरणादि उपचारो द्वारा ग्रहो का उपशमन करना है।
अव एककग इन शब्दो का विचार मावश्यक हो जाता है । देव ग्रह से क्या तात्पर्य है क्या देवता स्वय किसी मानव के शरीर में प्रविष्ट होकर कष्ट देते है ? देव ग्रहो में तप, दान, व्रत, धर्म, नियम, सत्य तथा अष्टविध सिद्धियाँ उनमें नित्य रहती है। उत्कृष्ट गुण होने के कारण वे मनुष्यो के साथ नहीं बैठते और न तो वे मनुष्यो के शरीर में प्रविष्ट ही होते है। किन्तु जो लोग भी अज्ञानवश मानव शरीर मे इनका प्रवेश मानते है उनको भूतविद्या से अनभिज्ञ ही समझना चाहिये । वास्तव में ये देव स्वयं शरीर में प्रविष्ट नहीं करते अपितु इन ग्रहो के जो असख्य अनुचर है एवं रक्त और मास पर ही निर्भर रहते है वे भयङ्कर तथा रात्रि में भ्रमण करनेवाले देवो के परिचर ही मानव-शरीर में प्रवेश करते
और उन्माद प्रभृति रोगो को पैदा करते है । ___ असुर-दैत्व ग्रह भी कहलाते है । गन्धर्व-देवताओ की सभा के गायक गन्धर्व कहलाते है। यक्ष-कुवेरादि देवता लोगो के कोपाध्यक्ष या अर्थपति होते है। राक्षस-से ब्रह्मराक्षस का ग्रहण करना चाहिये, ब्राह्मण की मृतात्मा। पितृग्रह-अपने वश के मृत पूर्व पुरुप जिनको पिण्डदान किया जाता है यदि उनको पिण्डदान न किया जाय या अन्य किसी कारण से अप्रसन्न हो जायें तो वे भी ग्रह रूप मे वाधक हो जाते है । नाग-सर्प लोक के ग्रह ।
ग्रह-वालग्रह के अध्याय मे वणित विविध ग्रह जो वालको में उपसृष्ट होकर नाना प्रकार की व्याधियां पैदा करते है। पिशाच-पिशित या मास खानेवाले ग्रह या निम्नस्तर के या समाज के एक छोटे अग के रूप में पाये जाने वाले प्रेत । ___इन ग्रहोपसर्गो को समझने के लिये इनके प्राकृतिक रूप में पाये जाने वाले मत्त्वो का ज्ञान आवश्यक हो जाता है। इसके लिये सत्त्वो का वर्णन अध्याय के अन्त मे चरक सहिता के अनुसार सत्त्व या रज अश की विशेषता के आधार पर १ तपामि तीब्राणि तथैव दानं ब्रतानि धर्मो नियमग्च सत्यम् ।
गुणास्तथाष्टावपि तेपु नित्या व्यस्ता समस्ताश्च यथाप्रभावम् ॥ न ते मनुष्य सह सविशन्ति न वा मनुष्यान् क्वचिदाविशन्ति । ये त्वाविगन्तीति वन्दन्ति मोहात्ते भूतविद्याविपयादपोह्या ॥ तेपां ग्रहाणा परिचारका ये कोटीसहस्रायुतपद्मसत्या. । अमृवसामांसभुजः सुभीमा निशाविहाराश्च तथा विशन्ति ।
' (सु. ३ ६०)