________________
२४०
भिपकर्म-सिद्धि का सेवन कराने का विधान भी पाया जाता है । यह पुनरावर्तक ज्वर में एक सिद्ध प्रयोग है -
किराततिक्तकं तिक्ता मुस्तं पर्पटकोऽमृता ।
नन्ति पीतानि चाभ्यासात् पुनरावतकं वरः।। अर्थात् चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापडा और गुडूची को जोकुट कर के २ तोल लेकर ३२ तोले मे लीलाकर ८ तोले गेप रहने पर उतार कर ठडा कर मधु मिलाकर कुछ दिनो तक पीने मे या कई मासो तक अभ्यास कराने से बार बार प्रावर्तन करने वाला ज्वर दूर होता है।
मन्थर ज्वर (Typpoid ) प्रतिरोध-आत्रिक ज्वर, मन्थर ज्वर या सतत ज्वर एक मर्यादित (मियादी ) सन्निपातज ज्वर का ही भेद है। इसमें ज्वर लगातार तीन या चार सप्ताह तक चलकर स्वयं शान्त होता है। इस रोग का विनिश्चय प्राय प्रथम सप्ताह के अनन्तर ही होता है। इस ज्वर में प्राय दो प्रकार के क्रम वाले रोगी मिलते है-एक वे जिन मे (विवध ) या क्वज रहता हो दूसरे वे जिनमें अतिसार चल रहा हो। इन दोनो क्रमो में चिकित्सा एवं पथ्य व्यवस्था का भेद करना होता है।
आधुनिक युग मे इस रोग की चिकित्सा मे 'क्लोरेमाईसेटिन' या उस वर्ग की किसी अन्य औषधि का उपयोग होता है-जिस से ज्वर अपेक्षाकृत कुछ शीव्रता से दूर होता है। तथापि इस में कई दोप भी पाये जाते है जैसे ज्वर का पुनरावर्तन ज्वर के छूट जाने पर पुन. आने की संभावना तथा औपधि की विपाक्तता का कुपरिणाम । आयुर्वेद की चिकित्सा में इन दोनो दोपो से रहित एव निरापद है। इस मे समय कुछ अधिक जरूर लगता है, परन्तु रोग का स्थायी एव चिरकालीन प्रतिकार हो जाता है।
वस्तुत मन्यर ज्वर की चिकित्सा में तीन ज्वरघ्न उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है, रोगी की शुश्रूपा एवं पथ्य-व्यवस्था इस स्वरुप की की जाती है जिसमे उसे कोई उपद्रव न हो और ज्वर निरुपद्रव अपने काल पर पहुंचकर छूटे। इस काल में फुफ्फुस, हृदय, मुख, मांत्र तथा मस्तिष्कसम्बन्धी उपद्रवो का भय रहता है एतदर्थ जव रोगी चिकित्सा में आवे उसके रोग का विनिश्चय होजावे तो तत्काल निम्नलिखित क्रम पर रख देना चाहिये। १. पूर्ण विश्राम २. पीने के लिये लवङ्गोदक या पडङ्गपानीय देना चाहिये। ३ सहिजन का कपाय बनाकर रख देना चाहिये उस से वीच-बीच में कुल्ली करते हुए रोगी अपने मुख की मफाई रखे । ४. रोगी को पथ्य मे यदि कब्ज हो तो गाय का दूध, गर्म करके ठंडा होने पर थोड़ा पानी मिलाकर पिलाना चाहिये। थोड़ा मिश्री या ग्लुकोज का