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भिपकर्म-सिद्धि ११ पिप्पली-पलाग के रम या पलागधार के जल में पिप्पली को २१ वार भावित करके घृत में भूनकर सामान्य या वर्द्धमान क्रम से दूध के साथ उपयोग करने मे यकृत् एवं प्लोहा रोग दोनो में लाभ होता है ।।
१२. प्रतिकरंज-पूतिकरज के मूल के चार को कांजी में भावित करके उसमें विडलवण और पिप्पली चूर्ण ४-४ रत्ती मिलाकर सेवन करने से यकृन्प्लीहावृद्धि का गमन होता है।
१३ शाष्टिा नियृह-कोकजघा या काकमाची या लता करज या गुञा का पाय बनाकर उनमें सेंधा नमक और इमली का क्षार मिलाकर (प्रत्येक ४-४ रत्ती ) सेवन करने से प्लीहरोग में लाभ पहुँचता है ।
११.जाखनाभि की भरम-मात्रा-२ माशे जम्वीरी निम्बू का रस २ तोले मिलारर दिन मे दो-तीन बार सेवन करना-इस योग से दीर्घकालीन प्लोहावृद्धि में भी लाभ होता है ।
२५ शुक्तिमस्म-समद्रगवित भस्म १.२ मागा की मात्रा में दूध मे डालकर भवन ।
१६ काली तिल-काली तिल ६ माशा और सेन्धा नमक - मागा मिला कर सेवन करने मे यकृत् की वृद्धि ( Cirhosis ) में लाभ होता है ।।
१७ पके आम के फल के रस-पके माम के फल के रस का मधु मिलाकर मेवन या अमावट का बहुल प्रयोग या पके आम मा सेवन यकृत् के रोगो में उत्तम बोपधि है।
१८ भल्लातक-शुभरलातक, हरड और जोरा ( भुना ) सम भाग मे लेकर पुरान गुड के माथ लड्डू बनाकर रख ले । १-२ मागे की मात्रा में दूध या जल के अनुपान से सेवन करने से यकृत् एव प्लीह रोगो में उत्तम लाभ होता है। एक सप्ताह के उपयोग से दारुण प्लीहा-वृद्धि में भी पर्याप्त लाभ पहुंचता है।
योग १ रोहितकाद्य चूर्ण-रोहीतक की छाल, यवक्षार, चिरायता, कुटकी, नवनादर, अतीम और मोठ । मम प्रमाण में लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा-१ मे ३ नागा प्रात-मायम् । अनुपान-जल, मट्ठा या मानवारिष्टो में मिलाकर । यहान्द्रोग (Cirhosis of liver ) में लाभप्रद ।
२. गुडूच्यादि चूर्ण-नीम गिलोय, यतीन, मोठ, चिरात्रता, कालमेघ या यतिका, नागरमोथा, पिप्पली, यवक्षार, गुद्र कासीम, चम्पे की जट को छाल । ममभाग में लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा-२ माशा । अनुपान-उप्ण जल प्लीहा वद्धि में लाभप्रद ।