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चतुर्थ खण्ड : तैतीसवाँ अध्याय
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प्रयोग प्रभृति आमवातघ्न उपचारो से शमन प्राप्त करने की आवश्यकता रहती है । ५ हृदय का रक्त द्वारा सम्यक् रोति से पोषण न होने के कारण होने वाले रोग ( Ischaemic Diseases of the Heart)-वास्तव मे हृच्छूल शब्द से उसी रोग का वर्णन हृद्रोगाधिकार के वैद्यक-ग्रंथो मे पाया जाता है। हृच्छल दो कारणो से Angina Pectoris तथा Coronary Thrombosis से हो सकता है। हृद्रोग-चिकित्साधिकार मे इसके प्रतिषेध एवं क्रिया"मो का ऊपर मे वर्णन हो चुका है।
तैंतीसवॉ अध्याय
मूत्रकृच्छ, मूत्राघात तथा अश्मरी एवं शर्करा प्रतिषेध
मूत्रकृच्छ्र-कष्ट या पीडा के साथ मूत्र-त्याग होना मूत्रकृच्छ कहलाता है । "मूत्रस्य महता कप्टेन दुखेन प्रवृत्ति ।" इस अवस्था मे मूत्र पर्याप्त बनता है, वस्ति मूत्र से भरी रहती है, रोगी मूत्र-त्याग को इच्छा भी करता है । परन्तु, मार्ग मे किसी प्रकार का अवरोव होने से मूत्र त्याग कष्ट के साथ होता है । मूत्र-त्याग मे रोगी को जलन एवं पीडा होती है। इस अवस्था को अग्रेजी में Painful Micturation or Dysurea. कहते है । इसकी उत्पत्ति मे आधुनिक ग्रंथकारो के अनुसार त्रिविध कारण भाग ले सकते है-१. वस्तिगत कारण--तीन या जोर्ण वस्तिशोथ ( Acute or chronic cystitis), २. मूत्रपरमाम्लता ( Hyperacidity), ३ फिरगी खञ्जता (Tabes Dorsalis), अपतंत्रक ( Hysteria) आदि ।
मूत्र-प्रणालीगत कारण-शिश्नकला शोथ ( urethritis), पूयमेह (Gonorr hoea), मूत्र-मार्गगत सौत्र संकोच (urethral stricture),
१ स्युर्मूत्रकृच्छाणि नृणा तथाष्टौ ।
पृथड्मला स्वैः कुपिता निदानै सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य वस्ती ।। मूत्रस्य मार्ग परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात् ।।
(च. चि ६)