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चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय
३२७ ६ मागे की मात्रा मे रात में सोते वक्त गर्म जल से देना चाहिए । कालमेघ कपाय भी उत्तम रहता है।
जब ज्वर न रहे ती नवायस या निशादि लौह या पुनर्नवा मण्डूर (पाण्डु रोगाविकार) दो से ४ रत्ती की मात्रा में दो बार दारुहल्दी के चूर्ण १ माशे से २ मागे और मधु ६ माशे से १ तोले मिला कर सुबह और शाम को देना चाहिए। भोजनोपरान्त धान्यरिष्ट का पिलाना उत्तम रहता है । बडे चम्मच से दो चम्मच समान जल मिलाकर दोनो प्रधान भोजन के पश्चात । लोहासव अथवा कुमार्यासव का उपयोग भी इसी भांति किया जा सकता है।
फलत्रिकादि कपाय-कामला रोग मे अमृत के समान हितकारी एक या दो बार नित्य काढा बना कर मधु मिलाकर नवायस देने के अनन्तर सहपान के रूप मे या स्वतंत्रतया भी दिया जा सकता है ।
रोगी रात्रि मे शतपत्र्यादि चूर्ण ६ मागे या यट्यादि चूर्ण ६ माशे ( अग्निमान्द्याधिकार में पठित ) गर्म जल से दिया जा सकता है। त्रिफला चूर्ण का भी प्रयोग रात्रि मे ६ माशे को मात्रा मे किया जा सकता है। रस के योगो मे आरोग्यवर्धिनी १ माशे की मात्रा मे जल या दूध से दिया जा सकता है।
आरोग्यवर्धिनी वटी-द्रव्य-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म प्रत्येक का एक भाग, हरीतकी, विभीतक, आमलकी प्रत्येक का २ भाग, शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध गुग्गुल, चित्रक मूल की छाल प्रत्येक ४ भाग तथा कुटकी २२ भाग ।
निर्माण विधि-पहले पारद और गधक की कज्जली करके पश्चात् उसमें अन्य भस्मे और शेप अन्य द्रव्यो का कपडछन चूर्ण मिलावे । नीमकी पत्ती के रस मे तीन दिनो तक मर्दन करके तीन-तीन रत्ती की गोलियाँ बनावे । छाया में सुखाकर रख ले । मात्रा १ से ३ गोली । अनुपान रोगानुसार जल, दूध, पुनर्नवा कपाय, दशमूलकषाय या मूत्रलकषाय से । (रसरत्नसमुच्चय कुष्ठाधिकार)
यह योग बहुत रोगो मे अनुपान भेद से चलता है। विशेषत यकृत विकार, जीर्ण विवव, उदररोग, कुष्ठ रोग, कामला, यकृत्प्लीहा के रोगो मे लाभप्रद पाया गया है।
अजन-द्रोणपुष्पी स्वरस अथवा पुननवा स्वरस का अजन आँख के पीलापन को नष्ट करता है। निशाद्यंजन-हरिद्रा, गैरिक तथा आँवले को चिकने पत्थर पर पानी में घिसकर अजन करने से भी कामला रोग मे नेत्र का पीलापन दूर होता है।