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भिपकर्म-सिद्धि
नस्य -- कर्कोट (क्कोडा या खेखसा ) की जडको पानी मे भिगोकर अथवा कडवी तरोई के सूखे फल को रात मे पानी मे भिगोकर दूसरे दिन उसको छान कर वनाये जल ( शीत कपाय ) का नासिका में छोडने से नामिका से तीव्र पीलास्राव होता है और नेत्र का पीलापन दूर होता है ।"
वस्तुत कामला रोग यकृत् की क्रिया ठीक न होने से अथवा वित्तागय गोथं या पित्तके अवरोव अथवा पित्त के अधिक बनने से उत्पन्न होता है । अग्निमान्द्य, अरुचि, तीव्र विवध तथा आँखो का पीलापन प्रमुख लक्षण पाया जाता है । सम्यक् उपचार होने पर सामान्यतया रोग एक सप्ताह में अच्छा हो जाता है। रोगी की अग्नि जागृत हो जाती है- भोजन करने लगता है । विविध लक्षण प्रशमित हो जाते हैं परन्तु आंखों का पीलापन मास या डेढ़ मास तक चलता रहता है | यह पीलापन धीरे-धीरे दूर होता है । इस पीलापन को दूर करने के लिये कई प्रकार के झाड फूंक, विविध नस्य तथा अजनो के उपयोग पाये जाते है । नस्य तथा अजन के प्रयोग आँखो के पीलेपन को शीघ्रता से दूर करने मे महायक होता है । फलत नस्य और अजनो के साथ-साथ पित्तकी अधिकता को कम करने के लिये, पित्ताशय शोथ एव पित्तावरोध के दूर करने के लिए तथा यकृत् क्रिया सुचारु रूप से संचालित करने के लिये मुख से आभ्यन्तर औषधि के प्रयोगो को चालू रखना चाहिये । क्योकि प्रधान उपचार यही है - नस्य एवं अजन गौण उपचार हैयदि अजन या नस्य का प्रयोग न भी किया जाय तो भी मुख से ओपवियोग का प्रयोग करते हुए एक से तीन या चार सप्ताह मे कामला का रोगी पूर्णतया रागमुक्त हो जाता है ।
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शाखाश्रित कामला प्रतिपेध - कामला शुद्ध पैत्तिक रोग है अतएव उसमे पित्तविरुद्ध चिकित्सा का उपक्रम बतलाया गया है । क्लिनिकल दृष्टि से देखा जाय तो इसके दो प्रकार मिलते है १ जिसमे सम्पूर्ण मूत्र, नख, त्वचा-नेत्र रक्त के रजित होते हुए भी पुरीप ( पाखाना ) रोगी का हवेत वर्ण ( तिलके पिष्ट सहरा ) निकलता है । १ दूसरा वह प्रकार जिसमे सभी त्वचा रक्त-नेत्र आदि के पीलापन के साथ पाखाने का रंग अत्यधिक रजित होकर काला जाता है। इनमे प्रथम को शाखाश्रित और दूसरे को कोष्ठाश्रित (Haemolytic or Hepatic ) कहते है । प्रथम स्वतंत्रतया तथा दूसरा पाण्डु रोग के अनन्तर रक्तनाश के उपद्रव स्वरूप होता है ।
१ अंजनं कामलार्तस्य द्रोणपुष्पीरस स्मृतः । निशागैरिकधात्रीणा चूर्णं वा सप्रकल्पयेत् ॥ नस्य कर्कोटमूल वा प्रेय वा जालिनीफलम् ॥