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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय (८) निम्ह देने के बाद वायु के कोप का भय रहता है । अत मासरस के ना भात दे और उसी दिन रोगी को अनुवासन दे । अनुवासन देने के अनन्तर गेगी की बुद्धि-निर्मल, मन का सन्तोप, स्निग्धता और रोगी की शान्ति बढती है।
(५) निम्ह वस्ति का उद्देश्य गोधन होता है मत उसके प्रयोग के बाद मत, कफ आदि पदार्थ स्वभावतया निकल आने चाहिए। यदि एक महत तक प्रतीक्षा करने प, वह वापस न आवे, अर्थात् वाहर न निकले तो त्रिवृतादि शोधन अथवा तीक्ष्ण निम्हो में यवक्षार, गो-सत्र और काजी मिलाकर पुन वस्ति दे जिसमे प्रथम दिया गया स्थापन द्रव्य वाहर निकल जाए ।
(E) वायु के अवरोध से रुका हुआ, विपरीत गति-युक्त निरूह अगो मे देर तक रुक कर शल, मानाह, वेचैनी, ज्वर आदि लक्षणो को पैदा कर मृत्यु का भी कारण हो सकता है।
(७) भोजन करने पर आस्थापन नहीं देना चाहिए, यह सिद्धान्त है। ऐसा न करने से या तो विमूचिका होती है या भयकर वमन होता है । अथवा सभी दोप दूपित हो जाते है अत भोजन न किए हुए व्यक्ति को ही निरूह दे । अर्थात् नित्ह का प्रयोग निराहारावस्था मे ही करना चाहिए।
(८) रोगी और रोग की अवस्था का विचार करते हुए निरूह देना चाहिए । क्योकि मल के निकल जाने पर दोपो का वल भी जाता रहता है।
(E) निरुहण में प्रयुक्त होने वाले द्रव्य-दूध, अम्ल, मूत्र, स्नेह, क्वाथ, मासरस, लवण, त्रिफला, मधु, सोफ, सरसो, वच, इलायची, सोठ, पिप्पली, रास्ना चोट, देवदार हल्दी, मुलहठी, हीग, कूठ और त्रिवृत, आदि सशोधन, कुटकी, शर्करा मुम्ता, खन, अजवाइन, प्रियगु, इन्द्र जी, काकोली, खीर काकोली, ऋपभक, जीवक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, मधूलिका इनमे से जो मिल सके उनका निव्हो मे उपयोग करे ।
१०) निरुह मे स्नेह को मात्रा के अनुसार कल्पना स्वस्थ अवस्थ मे यदि निस्हण देना हो तो सामान्यतया क्वाथ का ६ भाग स्नेह मिला कर दिया जाता है । दोपानुसार वायु के कोप मे स्नेह है भाग, पित्त मे भाग और कफ विकारो मे भाग क्वाथ मे स्नेह का होना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि मभी प्रकार के निरूहो मे कल्क का ? भाग स्नेह अवश्य हो । आस्थापन वस्ति कल्पना -
प्रथम सैन्धव एक कर्प ( १ तोला) मात्रा मे डाले, मधु दो प्रसूति मिला कर पात्र में इसको हाथ से खूब मथे, मथने पर तैल धीरे धीरे मिलता जाय। भली प्रकार मथे जाने पर मैनफल का कल्क इसमे मिलाए, फिर पीछे कहे हए दूसरे