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भिपकर्म-सिद्धि, (१६) एकान्तत केवल स्नेह बस्ति का अथवा केवल निम्हण का प्रयोग नही करना चाहिए। क्योकि ऐकान्तिक स्नेहन से अग्नि के नाम और उत्तंग होने का तथा ऐकान्तिक निम्हण से वायु के उपद्रवो का भय रहता है। इस लिए निन्ह के पश्चात् अनुवासन और अनुवान के पश्चात्. निम्हण करते रहना चाहिए । यदि लगातार अनुवामन देना हो तब वीच बीच में निम्हण करने रहना चाहिए।
(१७) आम स्नेह ( कच्चे तेल ) का अनुवासन नहीं देना चाहिए। उसमें गुदा अभिष्यद युक्त ( Congested ) हो जाती है ।
(१८) मात्रा-वय के अनुपात से निस्हो की जो मात्रा आगे बतलाई जायगी उसको चौथाई मात्रा मनुष्यो के लिए स्नेह वस्ति के अनुवापन में बरतनी चाहिए अर्थात् थेष्ट मात्रा ६ पल ( २४ तोले), मध्यम मात्रा (१२ तोल) नया होन मात्रा १ पल ( ६ तो० ) की होती है।
पट्पटी तु भवेज्ज्येष्टा मध्यमा विपलो भवेत् । क्नीयसी मार्द्धपला त्रिधा मात्राऽनुवामने ॥ ख-आस्थापन या निरूह :
(१) कोमल प्रकृति के पुरपो मे निरूह बस्ति कम मात्रा में दे । यह ध्यान रखे कि मात्रा भले ही ऐसे व्यक्तियों में कम हो जावे, परन्तु अधिक मागा कभी न पहुंचे।
(२) जिसमे वस्ति की मात्रा कम हो, वेग अल्प हो, मल और वायु कम हो, अाच, मूत्र-त्याग में कठिनाई और जडता उत्पन्न हो गई हो, उसे हीन निरूढ दुनिस्ट, नमझना चाहिए। यदि अति विरचित ( Dehydration ) के लक्षण पैदा होने लगे तो उसे नित्ढ समझे। जिम गेगी में माम्यापन देने पर क्रमग मल, पित्त, कफ भीर अन्त में वायु निकले, अन्न में रुचि बढे, कोष्ठ हलके प्रतीत हो, शरीर का भारीपन दूर हो जाय तथा अग्नि बढे, उमको सम्यक् निरूढ अर्थात् भली प्रकार से निस्ट हुमा समझे ।
(३) भली प्रकार से निम्हण के पश्चात् रोगो को स्नान करा के भोजन दे। पित्त वालो को दूध में, कफ वालो को यूप से, और वानु वालों को मामरस के माथ भोजन देना चाहिए । अथवा सभी को विकार न करने वाले जागल मानरस के साथ भोजन दे। भोजन की मात्रा प्रतिदिन के भोजन से ३ या भाग कम या इससे भी कम व्यक्ति को अग्नि एवं दोप के अनुसार होनी चाहिए । तदनन्तर स्नेह बस्ति देनी चाहिए।