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भिषम-सिद्धि
है कि इस अंग के द्वारा मन्य रीति से अनुष्ठान किए जाने पर सम्पूर्ण प्रकार के उपधान वा बाधाएं दूर हो सकती है । इन मूत्र में रसायन गट की व्यात्या करने हुए उल्हा ने लिखा है : "रमादि बातुनामयनं बाप्यायनम्" बाबा "नेपाधितानां स वीर्यदिपाकप्रभावपरमार्वलबीर्यागा वलस्थर्यकराणाम्यनम, रमायनन्, बट स्थापनम् अप्राप्य प्रापकं वेत्यर्थः ।" अर्थात् स्वस्थ रस रक्तादि धातुओं का पूरण या प्राप्ति रमायन है । मथ्वा मोपवियो के रस, वीर्य, विषाक, प्रभावों का बाय, वल, वीर्य बलस्थर्य के लिए संयुक्त करने की क्षमता को रसायन कहते हैं । अर्थात् रसायन बोपधियां अपने प्रभाव मे आयु, वल एवं वोर्ड की अधिक वर्द्धक एवं स्थिरता पैदा करने वाली होती हैं। बथवा अप्राप्य वन्तु की प्रापक (प्राप्त कराने वाली) होती है।
___वाग्भट ने भी लिखा है-रसायन के सेवन से मनुष्य दीर्घायु, गक्ति, स्मृति, मेवा (मस्तिष्क शक्ति), सतत आरोग्य, तरुणावस्या (यौवन ), प्रभा, वर्ण एवं स्वर को निर्मलता, शरीर तथा जानेद्रियों के अक्षुण्ण वल, वाक् सिद्धि (जो कहता हो उसका होना), वीर्य परिपूर्णता तथा कान्ति को प्राप्त करता है । संक्षेप में जिस तन्त्र-ज्ञान के द्वारा मनुष्य श्रेष्ठ रस रक्तादि धातुखों को प्राप्त करता है वह रमायन है । इसी भाव की उक्ति चरक संहिता में भी मिलती है।'
रसायन मन्द का दूसरा व्यवहार वैद्यक शास्त्र में रस या पारद घटित बोपवियों के वर्ष में भी पाया जाता है। नागार्जुन नामक गास्त्रकार रस विद्या के जन्मदाता माने जाते है। उन्होंने चिकिल्ला में स्वास्थ्य संरक्षण तथा रोग चिकित्सा के लिए पान्द, गन्धक एवं विविध प्रकार के वानूपयातुओ ना प्रयोग प्रारम्भ ग्गि। प्रगति करते-करते रस विद्या बाज के युग में सर्वोत्तम सिद्ध हुई और माज वैद्यो में रस वैद्य ही अधिक पाए जाते है । रस विद्या के दो ही प्रधान
हेच ये। १-लोह मिद्धि अर्थात् कल्प मुत्य की यातुओ का मशीन, बंग, यगद, तात्र आदि शाविक मूल्यवान धातुओ में जैसे चाँदी, मोना मादि में परिणत करना तथा २-देह निद्धि अथात् गरीर को उतना दृढ बना देना, जिससे ििवध प्रसार गर्गर एवं बागन्तुक व्याधियों से मुक्त दूधा जा सके। इसी अर्थ में रमापधियों को भी रसायन कहा जाता है।
१ दीवाय. स्मृति मेदामारोचं नाणं वयः । प्रमावर्णस्वरोदार्य देहेन्द्रियबालं परम् । वामिदि प्राति गन्ति लम्ते ना रसायनात् । लानीपायो हि शस्ताना रनादीनां रसायनम् ॥
(च० चि०१)