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चतुथ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय ३३६ आटरूपक काथ-अडूसा के क्वाथ मे फूल-प्रियङ्ग, सोरठं मिट्टी, सफेद सुरमा या रसवत का प्रक्षेप प्रत्येक एक माशा चूर्ण छोडकर मधु मिलाकर सेवन ।
वासा घृत-१ वासा पंचाङ्ग से सिद्ध घृत का सेवन । १
२ गूलर के अधपके फलो का रस २१ तोले, शहद १ तोला मिलाकर सेवन । ३ अभया (हरे ) का चूर्ण २ माशे ६ माशा शहद के साथ । ४. वासा के स्वरस से भावित पिप्पली या अभया चूर्ण, वासा-स्वरस की सात भावना देकर बनाया चूर्ण मात्रा पिप्पली चूर्ण २ माशा और हरीतकी चूर्ण ४ माशे मधु ६ माशे के साथ । ५ पकी गूलर, गाम्भारी फल, हरीतकी या पिण्ड खजूर का पृथक् मधु से सेवन । ६ खदिर, प्रियङ्गु, काचनार और सेमल इनमे से किसी एक फूलो का चूर्ण ३ माशे मधु ६ माशे मिला कर सेवन । ७ शुद्ध लाक्षा का वस्त्र से छाना हुआ महोन चूर्ण ४ माशे की मात्रा में लेकर मधु ६ माशे और घृत १ तोले के साथ सेवन रक्त वमन को सद्य बद करता है । ८ निशोथ, हरड-बहेरा-आंवला-श्यामा लता और छोटी पोपल प्रत्येक १-१ तोला शर्करा कुल मात्रा को दुगुनी । ३ से १ तोले का मोदक के रूप मे बनाकर सेवन ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे लाभप्रद होता है । ९ मदयन्तिका (मेहदो) के मूल का काढा बना कर मधु तथा शर्करा के साथ सेवन । १० अतसी का फूल ११ लज्जावती का पचाङ्ग १२. मजीठ १३ वटका प्ररोह इन का पृथक् पृथक् कषाय बनाकर मुद्गयूप के साथ सेवन । १४ शुद्ध स्फटिका ( फिटकिरी ) एक बडी सुन्दर रक्तस्तभक औषधि है। इसका स्थानिक प्रयोग बाहय रक्तस्राव को बन्द करता है। दन्तोत्पाटन के अनन्तर या दाँत से होनेवाले रक्त-स्राव मे फिटकिरी के चूर्ण को गर्त मे रख कर बद कर देना चाहिए। तत्काल रक्त वन्द हो जाता है । इसी प्रकार वाहय या दृष्ट रक्तस्राव मे फिटकरी का स्थानिक प्रयोग सद्य रक्तस्तभक होता है। आभ्यतर रक्तस्राव मे विशेपत. अधोग रक्तस्राव मे अर्थात् गुदा, लिङ्ग या योनि से होने वाले रक्तस्राव मे शुद्ध स्फटिका १ माशा की मात्रा मे गूलर के छाल के काढे के अनुपान से दिन मे दोतीन बार प्रयोग करने पर सद्य लाभप्रद पाई जाती है । १५ शुद्ध शख भस्म ४र०, सुवर्ण गैरिक १ माशा या दुग्धपापाण चूर्ण १ माशा की मात्रा मे दिन मे चार वार मधु के या घी-चीनी के साथ सेवन । १६ मूपाकर्णी, १७ अयापान १८
१ वासा सशाखा सहपत्रमूला कृत्वा कपाय कुसुमानि चास्याः । प्रदाय कल्क विपचेद् घृतञ्च क्षौद्रेण पानाद्विनिहन्ति रक्तम् ।।