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भिपक्कम-सिद्धि रहते है। उन उपवारो से रक्त का स्तम्भन तथा रक्तनागजन्य दाह की शान्ति होती है।
रक्तपित्त में संशमनोपचार या भेपज--रक्तपित्त मे वासा ( अटूमा) एक प्रमुख मीपधि के रूप में व्यवहृत होता है । लिखा है “अडूसा की विद्यमानता में और जीवन की आशा रहने पर रक्तपित्त, क्षय तथा कास खाँसी) वाले क्यो कप्ट उठाते है ।' अर्थात इन रोगो में वासा का प्रयोग अव्यर्थ रहता है। ऐसे रोगी वासा के सेवन से अपने रोग को हटा सकते है । कई कल्पनायें वासा की हो सकती है :
वासा स्वरस-वासा के पंचाङ्ग को पानी से पीस कर उसका स्वरस मधु के साथ सेवन । या तालीगपत्र का २ माशा चूर्ण मिलाकर सेवन ।
वासापुटपाक स्वरस-पुटपाक विधि से वासा का स्वरस मधु से मिश्रित करके सेवन ।
वासा-कपाय-अडूसे के पंचाङ्ग के विधिपूर्वक सिद्ध किये कपाय मे नोल कमल, सोरठ मिट्टी ( अभाव में फिटकिरी ), फूल प्रियङ्ग, लोध्र, स्रोतोञ्जन, कमल की केमर प्रत्येक का ४ रत्ती की मात्रा में प्रक्षेप डाल कर सेवन ।
१. भद्रश्रियं लोहितचन्दनञ्च प्रपीण्डरीकं कमलोत्पल च । उशीरवानीरजलं मृणालं महस्रवीर्या मधुक पयस्या ॥ गालीक्षुमूलानि यवासगुन्द्रामूलं नलाना कुगकागयोश्च । कुचन्दनं शैवलमप्यनन्ता कालानुसार्यातृणमूलमृद्धि | मूलानि पुष्पाणि च वारिजाना प्रलेपनं पुष्करिणीमदश्च । उदुम्बराग्वत्थमधूकलोवाः कपायवृक्षा. गिगिगश्च सर्वे । प्रदेहकल्पे परिपेचने च तथावगाहे घृततैलमिद्धी । रक्तस्य पित्तस्य च शान्तिमिच्छन् भद्रश्रियादीनि भिपक् प्रयुज्यात । धारागृहं भूमिगृहं च गीतं वन च रम्य जलवातशीतम् । वैदूर्यमुक्तामणिभाजनाना स्पश्चि दाहे गिगिराम्बुगीता. ॥ पत्राणि पुष्पाणि च वारिजाना क्षीमञ्च शीतं कदलीदलानि । प्रच्छादनार्थ शयनासनाना पद्मोत्पलानाञ्च दलाः प्रशस्ता. ॥ प्रियङ्गकाचन्दनरूपितानां स्पर्गा प्रियाणाञ्च वराङ्गनानाम् । दाहे प्रगस्ताः सजला सुशीताः पद्मोत्पलानाञ्च कलापवाताः ॥ सरिध्रदाना हिमवद्दरीणा चन्द्रोदयाना कमलाकराणाम् । मनोनुकूला गिशिराश्च सर्वा कथा. सरक्तं गमयन्ति पित्तम् ॥
(चर० चि०४) २. वासाया विद्यमानायामाशायां जीवनस्य च । रक्तपित्ती चयी कासी किमर्थमवसीदति ॥ (च० द०)