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तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय
१६६ ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति एव समाधि प्रभृति क्रियाओ द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । देवव्यपाश्रयकर्म-बलि-मगल-होम प्रभृति है, युक्तिव्यपाश्रय कर्मो मे गरीर एवं औपधि का विचार करते हुए यथायोग्य भेपज का प्रयोग आ जाता है। ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृति और समाधि से क्रमश अध्यात्मज्ञान, शास्त्रज्ञान, धैर्य धारण, अनुभूत विषयो का स्मरण तथा विपयो से मन को रोककर आत्म मे नियमन करना आता है।
प्रशाम्यत्यौपधैः पूर्वो देवयुक्तिव्यपाश्रयैः । मानसो ज्ञानविज्ञानधैयस्मृतिसमाधिभिः ।।
(च सू १) उपक्रम भेद से चिकित्सा के दो प्रकार हो जाते है । १ सतर्पण २ अपतपण । दूसरे शब्दो में संतर्पण को वृहण और अपतर्पण को लघन कहा जाता है। शरीर मे रस-रक्तादि धातुओ की क्रिया को जो वढावे वह सतर्पण और जो कम करे या धातुओ को हल्का करे वह अपतर्पण या लघन कहलाता है।
लघन कर्म के पुन दो भेद हो जाते है १ शोधन या सशोधन २ शमन या मंशमन । जिस क्रिया के द्वारा दोप या मल बाहर निकल जाते है वह कर्म शोधन कहलाता है। यह कर्म पुन. पाँच प्रकार का होता है (क) निरूह वस्ति (ख) वमन (ग) विरेचन (घ) शिरोविरेचन (ड) रक्तावसेचन ( रक्त का वहाना)। __शमन उस कर्म को कहते है--जो मल को बाहर नहीं निकालता, समदोपो को प्रकुपित नहीं करता, अपितु विपम धातु एव दोपो को समान करता है। इसके भीतर सात उपक्रमो का समावेश हो जाता है । (क) पाचन, (ख) दीपन ( जाठराग्नि को दीप्त करना), (ग) क्षुधानिग्रह, (भूख का रोकना), (घ ) तृपानिग्रह (प्यास को रोकना ), (ड) व्यायाम ( परिश्रम करना ), ( च ) आतप ( धूप का सेवन कराना ), (छ ) वायु के सेवन, ये शमन के सात प्रकार है। वहण कर्म भी शमन का कार्य करता है। प्राय गुरु, शीत, मदु, स्थूल, घन, पिच्छिल, मद, स्थिर एव श्लक्ष्ण द्रव्य बृण होते है । वृहण क्रिया के द्वारा वल, पुष्टि एव स्थिरता वढती है, कृशता दूर होती है। अधिक वृहण होने से स्यूलता आ जाती है।
उपक्रमस्य द्वित्वाद्धि द्विधैवोपक्रमो मत । एकः संतपणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्पणः॥ बृंहणो लङ्घनश्चेति तत्पर्यायावुदाहृतौ । बृंहणं यत् बृहत्त्वाय लञ्चनं लाघवाय यत् ॥