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चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय
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कृमियां होती है । इनके नाम क्रमश केशाद ( केशो को खाने वाली ), लोमाद ( लोमो को खाने वाली ), लोमद्वीप ( लोगो के कूपो मे रहने वाली ), सोसुर ( मद्योत्य ) तथा ओडुम्बर उदुम्बर के कीडे जैसे तथा जन्तुमार ( जीव को मारने वाली ) है | इन कृमियों के प्रभाव से केश, दाढी, पक्ष्म के बाल झड जाते है ( Alopecia universalis ), व्रण प्रदेश में कण्डु और हर्प पैदा करती है । यदि अधिक सत्ता वृद्धि हो तो त्वक्, मिरा, स्नायु, मास, तरुणास्थि प्रभूति अतस्थ अवयत्रो को भी प्रभावित करती है । इन अंगो मे शोथ, कोथ और कर्दम (Oedema, Necrosis or Gangrene ) पैदा कर इन अवयवो को खा जाती है । इनका प्रभाव स्थानिक न होकर सार्वदेहिक होता है । अस्तु, इनमे कुष्टवत् रक्तशोधक ( Blood Purifier ) औषधियो की व्यवस्था करनी चाहिये | श्लीपद ( Microfilarae ) तथा कुष्ठ रोग मे इस प्रकार की कृमियाँ बहुलता से मिलती है ।
श्लेष्मज -मधुर- रसात्मक द्रव्य, मिष्टान्न, क्षीर, गुड, तिल, दधि, मत्स्य, आनूपमाम, पिष्टान्न पायम ( परमान्न), कुसुम्भ स्नेह ( वर्रे का तेल }, अजीर्ण मे भोजन करना, पूतियुक्त ( सटो, गली, वासी अन्न का सेवन ), क्लिन्न या अतिद्रव भोजन ( अधिक जल, गुड आदि के योग से बने अन्न ), सकीर्ण भोजन (मलादि - मिश्रित घृणाजनक अन्न का सेवन ), विरुद्ध अन्न ( कई प्रकार के विरोधी भोजन वतलाये गये है जैसे दूध के साथ मछली का सेवन, दू के साथ नमक का खाना आदि ), असात्म्य अन्न ( जिस प्रकार के भोजन का अभ्यास न हो ऐसे अन्न का सेवन ), बिना उवाले जल का पीना, दिवास्वाप प्रभृति कारणो से लेप्मजात कफज कृमियाँ उत्पन्न होती है । इन का प्रधान आवास आमाशय में होता है । वहाँ से अपने अण्डे बच्चो से बढती है तथा आकार-प्रकार से स्वय बढती हुई ऊपर और नीचे को चलती है । ऊपर की ओर से चल वे मुख और नासाद्वार से नीचे की ओर चलती हुई मलद्वार से निकलती रहती है । ये कई प्रकार की आकार और परिमाण की हो सकती है, कुछ पतली, लम्बी, कुछ मोटी और दीर्घ वृत्ताकार, कुछ केचुवे सदृश ( गण्डूपदाकृतयः ), अणु ओर दीर्घ होती है । इनके वर्ण भी कई प्रकार के सफेद, लाल या ताम्र वर्ण के होते है | प्रभाव तथा आकार के अनुसार इनके नाम भी विविध है । अत्रादा ( आतको खाने वाली ), उदरादा ( उदर को खाने वाली ), हृदयचरा हृदयादा - ( हृदयमे चलने वाली या हृदय को खाने वाली), कई बार कृमियों के अण्डे रक्तवह सस्थान से चक्कर काटते हुए हृदय में पहुँचकर हृद्रोग पैदा करते है ।
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