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भिपकर्म-सिद्धि
१ सेर, मुनक्का १। सेर, जल ३२ सेर, गर्करा ! मेर, गुड 3 सेर २ छटाँक । चूर्ण करने लायक औपधियो का महीन चूर्ण करके वृतलिप्न भाण्ड में संधान करना चाहिये । १ गस तक भाण्ड का मुख बंद करके रखना चाहिये । एक मान के अनन्तर छान कर गीगी में भर कर रख ले। मात्रा २ तोला भोजन के बाद।
८ चल्य चूर्ण-वब्बूल की फली, ममुद्रगोप, अष्टवर्ग की नीपधियां या उनके शास्त्रोक्त प्रतिनिवि द्रव्य, मालिव मिश्री, सेमर का मुसला, तृणकान्त (कहरवासमई), छोटी इलायची के वीज, कतोरा, सफेद मुसली प्रत्येक १ भाग, इसबगोल को भूसी ४ भाग । मव का चूर्ण बनाकर कुल के बराबर मिश्री मिला कर रख ले। मात्रा २ माशा । अनुपान जल या दूध से । (श्री पं० राजेश्वर दत्त शास्त्री हि वि. वि कागी)
पैतीसवाँ अध्याय
मेदोरोग प्रतिषेध प्रावेशिक-मेदो रोग या स्थौल्य-वह रोग जिसमे शरीर मे अत्यधिक वमा ( मेद या चरबी ) का संत्र्य हो जावे । व्यायाम का अभाव, अधिक सोना, निश्चितता का जीवन, दिवास्वप्न, ग्लेष्मा-वर्वक आहार का मेवन, मधुरतायुक्त बन्न-रम स्निग्ध होने से मेद को उत्पन्न करता है। मेद के द्वारा स्रोतो का अवरोध होने में अन्य धातुवो का पोपण नहीं होता केवल भेद की ही वृद्धि निरन्तर होती रहती है। इससे रोगी कोई काम नहीं कर पाता । उसको घोडे श्रम से ही सांस फूलने लगती है। मेदस्त्री को भूख, प्यास एवं निद्रा अधिक होती है। आशिथिल हो जाता है, पसीना अधिक आता है, पसीने में वदवू पाई जाती है। रोगी की जीवनी शक्ति, मैथनगक्ति एवं प्रजननशक्ति भी कम हो जाती है। उदर मे मेद का संचय होने से उस का याकार विगेप बढ़ जाता है।
न्यौल्य से ग्रस्त व्यक्ति या मेदस्वी व्यक्ति की स्फूति या गति-चीलता कम हो जाती है, शरीर का गठन बिगड़ जाता है, विचचिका ग कच्छु रोग (Eczyma) अथवा मधुमेह होने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।