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चतुर्थ खण्ड : चौंतीसवाँ अध्याय
५७९ रहने दे। दिन में मोना या एक साथ मे ६ घटे से अधिक सोना भी अनुकूल नही पड़ता है। आलस्य को त्याग कर सोना, ब्राह्म मुहूर्त मे उठना, जब मूत्र का वेग प्रतीत हो मूत्रत्याग, शौच का वेग आने पर शौचत्याग करने का अभ्यास करना चाहिये । औपवि रूप मे निम्नलिखित औषधियोगो का व्यवहार करते हए पर्याप्त लाभ होता है।
गुडूची, वशलोचन, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, आंवला, मजीठ, अगर, कूठ, नागरमोथा, देवदारु, श्वेत चदन, त्रिफला, कशेरु, अर्जुन की छाल, सेमल की मुसली, वलामूल, शीतलचीनी, कर्पूर प्रभृति औषधियो का उपयोग उत्तम रहता है। यदि रोगी मे विवध का वृत्त मिले तो वस्ति या मृदु रेचन से कोष्ठशुद्धि कर लेनी चाहिये।
१ हरिद्रादि योग-हरिद्रा चूर्ण २ माशा, आमलको चूर्ण,२ माशा और मधु ६ माशा का जल के साथ सेवन ।
२. समुद्रशोपादि चूर्ण-समुद्र शोष १ भाग, साफ राल २ भाग और मिश्री ८ भाग इस अनुपात मे बना चूर्ण । मात्रा ६ माशे ठडे जल से । पुरुषो के शुक्रक्षय तथा स्त्रियो के श्वेत प्रदर दोनो रोगो मे लाभप्रद होता है ।
३ शीतलचीनी का चूर्ण २ मा० मधु ६ माशे के साथ मिलाकर सेवन ।
४ सुवर्णमाक्षिक भस्म १ रत्ती, शहद ६ माशे के साथ अथवा प्रबालपिष्टि २ रत्ती और गुडूची सत्त्व १ माशा मिलाकर मधु के साथ दिन में दो बार । रस सिन्दूर १ रत्ती, शुद्ध शिलाजीत ४ रत्ती इस योग मे मिला दिया जावे तो उत्तम लाभ होता है । चद्रकला वटी-१-२ गोली सुबह-शाम मधु के साथ सेवन उत्तम हैं।
५. चद्रकला वटी २ रत्ती, प्रवालपिष्टि १ रत्ती, सुवर्ण माक्षिक भस्म १ रत्ती, गुडूची सत्त्व १ माशा मिला कर एक मात्रा-ऐसी दो मात्रा सुबह-शाम लेने से उत्तम होता है। साथ मे चदनासव-भोजन के बाद २ चम्मच समान जल मिलाकर देना भी उत्तम रहता है।
६ यदि रोग वडा हो हठी हो तो कुछ दिनो तक निद्राकर योगो का प्रयोग करना भी उत्तम रहता है-जैसे जटामास्यादि कषाय अथवा शुद्ध कपूर १ रत्ती और शुद्ध अहिफेन १ रत्ती मिश्रित १ मात्रा।
७ चंदनासव-श्वेत चदन, नागरमोथा, नेत्रवाला, गम्भारी की छाल, नील कमल, प्रियगु, पद्माख, पठानी लोध, मजीठ, लाल चंदन, पाठा, चिरायता, वट की छाल, पिप्पली, कचूर, पित्तपापडा, मुलैठो, रासना, पटोलपत्र, कचनार की छाल, आम की छाल, और मोचरस प्रत्येक चार-चार तोला। धाय का फूल