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चतुर्थ खण्ड : तेरहवाँ अध्याय
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घोडे की लीद का रस अथवा ८. काली तुलसी का रस मधु से चाटना कफज कास मे उत्तम रहता है । ९ वैगन या भंटे का स्वरस भी मधु के साथ कासन होता है । "
१०. पिप्पली, पिप्पली मूल, सोठ और विभीतक के समभाग मे वने चूर्ण का मधु मे सेवन |
११ मोर और मुर्गा की पखो को जलाकर ली गई कारिख, यवक्षार, इन्द्रवारुणी मूल, पिप्पली मूल और निशोथ के चूर्ण का मधु से सेवन ।
१२. देवदारु, शटी ( कचूर ), अतीस, नागरमोथा, पुष्करमूल, कट्फल, हरीतकी, कर्कटशृङ्गी, अदरक, सोठ, हिंगु, सैन्धव, पंचकोल, दशमूल आदि औपधियां वात और कफ कास में लाभप्रद होती है ।
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क्रियाक्रम क्षतज कास में पित्तकास मे वतलाये उपक्रमो के अनुसार क्षतज कास मे चिकित्सा करनी चाहिये । पित्तकास मे शमन के लिये पित्त दोष के शामक, कासघ्न एव मधुर द्रव्यो से जैसे क्षीर, घृत, इक्षु रस, शर्वत और मधु आदि का अनुपान देना चाहिए। जीवनीय गण की औषधियो से सिद्ध घृत का पिलाना । घृत का अभ्यग । कबूतर का मासरस । तृष्णाधिक्य मे बकरी का दूध | रक्तष्ठीवन अधिक हो रहा हो तो शीतल यवागू का सेवन | 2
इक्ष्वादिलेह - इक्षु, इक्षुवालिका, पद्म, मृणाल, उत्पल, चदन, मुलेठी, पिप्पली, मुनक्का, कर्कटशृंगी, शतावरी, प्रत्येक का एक भाग । कुल से दूना वशलोचन और चतुर्गुण मिश्री । इस चूर्ण का घृत और मधु मिलाकर सेवन
क्रियाक्रम क्षयज कास में यदि रोगी दुर्बल हो और उसमे सम्पूर्ण लक्षणो से युक्त रोग हो तो उसको छोड देना चाहिए, परन्तु बलवान् रोगी हो और रोग नवीन हो तो रोग को दु साध्यता के बारे में रोगी के अभिभावक को बतलाकर ( प्रत्याख्यान करके ) उसकी स्वीकृति लेकर उपचार प्रारंभ करना चाहिये ।
क्षयज कास में सर्वप्रथम अग्नि का दीपन और रोगी के शरीर का वृहण ( धातुवो की वृद्धि ) का ध्यान रखना चाहिए। यदि रोगी मे दोपो की अधिकता
९ मधुना मरिच लिह्यान्मधुनैव च जोनकम् । पृथग् रसाश्च मधुना व्याघ्रीभार्ताकुङ्गजान् । कासघ्नाश्च कृशश्वश ४. सुरसस्यासितस्य च । ("वा चि ३ )
२ क्षतकासाभिभूताना वृत्ति स्यात् पित्तकासिको । चोरसर्पिर्मधुप्राया संसर्गे तु विशेषणम् ॥ वातपित्तादितेऽभ्यङ्गो गात्रभेदैर्वृतिः । पानं जीवनीयस्य सर्पिष ॥